कोख में कत्ल होती बेटियाँ: हरियाणा की घुटती संवेदना
बेटी भ्रूण हत्या : आँकड़े नहीं, संवेदना की चीख
हरियाणा में केवल तीन महीनों में एक हज़ार एक सौ चौवन गर्भपात। कारण – कन्या भ्रूण हत्या की आशंका। छप्पन आशा कार्यकर्ताओं को कारण बताओ नोटिस। निगरानी प्रणाली में चूक। पश्च परीक्षण प्रणाली और पुलिस के सहयोग से कठोर कार्यवाही की तैयारी। किन्तु क्या यह सख़्ती पर्याप्त है? जब तक समाज की सोच, पारिवारिक मानसिकता और चिकित्सा संस्थानों की नैतिकता में बदलाव नहीं आएगा, तब तक कोई योजना सफल नहीं होगी। बेटी को बचाने के लिए उसका जन्म गर्व का विषय बनाना होगा, अपराधबोध का नहीं।
प्रियंका सौरभ
जिस धरती पर दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी जैसी नारियों की पूजा होती है, उसी धरती पर बेटियाँ आज भी माँ की कोख में दम तोड़ रही हैं। हाल ही में आई एक रिपोर्ट ने हरियाणा की उस कड़वी सच्चाई को फिर से उजागर किया है, जिसमें तीन महीनों में एक हज़ार एक सौ चौवन गर्भपात दर्ज किए गए — जिनमें अधिकांश के पीछे पुत्री होने की संभावना प्रमुख कारण मानी जा रही है।
यह आँकड़ा केवल एक संख्या नहीं, बल्कि हमारे समाज के भीतर छुपी पुरुषप्रधान सोच, भेदभावपूर्ण मानसिकता और शासन-प्रशासन की विफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं को जमीनी स्तर तक पहुँचाने के लिए आशा कार्यकर्ताओं को “सहेली” की भूमिका में तैनात किया था। उनका कर्तव्य था कि वे गर्भवती महिलाओं की नियमित निगरानी करें, उनके स्वास्थ्य की देखरेख करें, और सही सलाह देकर उन्हें सहयोग प्रदान करें। किन्तु छप्पन आशा कार्यकर्ताओं को कारण बताओ नोटिस जारी किया जाना यह दर्शाता है कि इस निगरानी प्रणाली में गम्भीर लापरवाही हुई है।
क्या ये कार्यकर्ता जानबूझकर लापरवाह थीं, या उनके पास संसाधनों की कमी थी? क्या वे सामाजिक दबाव, भय अथवा अव्यवस्था के कारण चुप रहीं? यह गहन जाँच का विषय है, क्योंकि केवल दंड देना समाधान नहीं, अपितु इस समस्या का संवेदनशील समाधान आवश्यक है।
हमारे देश में गर्भधारण से पूर्व एवं पूर्व प्रसव भ्रूण परीक्षण निषेध अधिनियम के अंतर्गत भ्रूण की लिंग जाँच तथा लिंग के आधार पर गर्भपात एक दंडनीय अपराध है। परंतु यह अधिनियम केवल काग़ज़ों तक सीमित रह गया है।
हरियाणा में कई स्थानों पर अवैध भ्रूण परीक्षण केंद्र, निजी चिकित्सा केंद्रों की मिलीभगत, तथा पैसे के लालच में लिंग जाँच और भ्रूण हत्या आज भी बेरोक-टोक जारी है। इन केंद्रों पर रोक लगाने हेतु बनाए गए विशेष दस्तों तथा निरीक्षण टीमों की सक्रियता केवल औपचारिकता बनकर रह गई है।
स्वास्थ्य विभाग ने गर्भपात करवाने वाली महिलाओं की “पश्च परीक्षण प्रणाली” को अधिक कठोर करने की घोषणा की है तथा विशेष रूप से उन महिलाओं की निगरानी बढ़ाने की बात कही है, जिनकी पहले से एक या अधिक पुत्रियाँ हैं। उद्देश्य सकारात्मक है, परंतु यदि इसे संवेदनशीलता और सम्मान के साथ लागू नहीं किया गया, तो यह कदम स्वयं महिलाओं के स्वास्थ्य अधिकारों और निजता पर प्रहार बन सकता है।
क्या यह निगरानी केवल भय का वातावरण उत्पन्न करने का माध्यम बन रही है? या फिर वे महिलाएँ, जो सामाजिक दबाव में आकर गर्भपात करवाने को विवश हुईं, अब एक बार फिर पीड़िता की बजाय अपराधिनी बना दी जाएँगी?
“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसे नारे केवल दीवारों पर लिखे जा रहे हैं अथवा नेताओं के भाषणों में दोहराए जा रहे हैं। ज़मीनी सच्चाई यह है कि ग्रामीण ही नहीं, शहरी समाज भी पुत्री को आज भी एक बोझ के रूप में देखता है। दहेज, सुरक्षा, सम्मान और वंश परंपरा जैसे कुप्रथाओं के कारण बेटियाँ आज भी अवांछित हैं।
क्या केवल नारेबाज़ी पर्याप्त है या इस दिशा में मूलभूत सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता है?
कोख में हो रही बेटियों की हत्या केवल माँ या परिवार की जिम्मेदारी नहीं है। यह एक सामूहिक अपराध है, जिसमें समाज, चिकित्सा संस्थान, प्रशासनिक व्यवस्था और हम सब शामिल हैं।
जब कोई महिला दूसरी या तीसरी बार पुत्री को जन्म देने वाली होती है, तो समाज उसकी मानसिकता, पात्रता और पारिवारिक स्थिति पर कटाक्ष करता है। यही मानसिकता उस माँ को मजबूर करती है कि वह अगली बार कन्या का जन्म न होने दे — भले ही इसकी क़ीमत किसी जीवन के रूप में क्यों न हो।
केवल नोटिस, निलंबन और निगरानी से यह विकराल समस्या नहीं सुलझेगी। इसके लिए आवश्यक है – स्थानीय स्तर पर महिला सशक्तिकरण अभियान, पुत्रियों के जन्म पर प्रोत्साहन योजनाओं का क्रियान्वयन, जनजागृति के लिए पत्र-पत्रिकाओं, चलचित्रों और सामाजिक माध्यमों का उपयोग, पारिवारिक मुखियों को संवेदनशील बनाना, लिंग परीक्षण करने वाले चिकित्सकों पर कठोर दंडात्मक कार्यवाही, अवैध भ्रूण परीक्षण केंद्रों को बंद करना, तथा शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में लिंग समानता की शिक्षा को समाविष्ट करना।
आशा कार्यकर्ताओं को दंडित करना एक सतही समाधान है। असल प्रश्न यह है — क्या उन्हें आवश्यक प्रशिक्षण, संसाधन, समय पर मानदेय तथा कार्यस्थल पर सुरक्षा प्राप्त थी? जिन चिकित्सकों ने अवैध लिंग जाँच की, जिन केंद्रों ने भ्रूण हत्या करवाई, तथा जिन परिवारों ने कन्या को अस्वीकार किया — क्या उन सबको भी समान रूप से उत्तरदायी ठहराया गया?
यदि माताओं को निर्णय लेने का अधिकार देना है, तो उन्हें शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता और सामाजिक सम्मान देना होगा। बेटी तभी बचेगी जब उसकी जननी स्वयं को सक्षम और सशक्त मानेगी। आज आवश्यकता है कि हम हर माँ को यह कहें — “तू दुर्बल नहीं है, तेरे गर्भ में एक शक्ति पल रही है।”
पश्च परीक्षण प्रणाली और पुलिसिया दबाव केवल भय का वातावरण उत्पन्न करेंगे। इनकी अपेक्षा यदि हम संवाद को प्राथमिकता दें, महिलाओं को उनके अधिकारों की जानकारी दें, तथा समाज में बेटियों के लिए सम्मान का भाव विकसित करें — तो परिणाम अधिक स्थायी और सकारात्मक होंगे।
एक हज़ार एक सौ चौवन गर्भपात केवल आँकड़े नहीं हैं। ये उस सामूहिक हत्या की पटकथा हैं, जो केवल इसीलिए लिखी गई क्योंकि भ्रूण स्त्रीलिंग का था। यह केवल हरियाणा नहीं, सम्पूर्ण भारत की नैतिक हार है। जब तक हम लिंग के आधार पर भेदभाव करते रहेंगे, तब तक कोई नीति, कोई योजना, कोई निगरानी प्रणाली प्रभावी सिद्ध नहीं होगी।
यदि हमें सच में बेटी को बचाना है, तो सबसे पहले सोच को बदलना होगा। क़ानून से पहले करुणा और योजना से पहले दृष्टिकोण को बदलना होगा। अन्यथा हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें कोखें सूनी रह जाएँगी, और सभ्यता अधूरी रह जाएगी।
प्रियंका सौरभ
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