500 करोड़ देकर ISS पर गए शुभांशु शुक्ला : वैज्ञानिक उपलब्धि या दिखावटी राष्ट्रवाद ?
शोर नहीं, शोध चाहिए। प्रचार नहीं, प्रगति चाहिए
विजय सिंह ठकुराय
पिछले महीने भारत के एक नागरिक शुभांशु शुक्ला ने अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) की यात्रा की। यह मिशन न तो इसरो का था, न भारत सरकार का। बल्कि यह एक प्राइवेट मिशन था — अमेरिका की निजी अंतरिक्ष कंपनी Axiom Space द्वारा संचालित — जिसमें शुक्ला ने लगभग ₹500 करोड़ (करीब 60 मिलियन डॉलर) का भुगतान कर पर्यटक-अंतरिक्षयात्री के रूप में भाग लिया।
वैज्ञानिक प्रयोग या दोहराव?
शुक्ला ने अंतरिक्ष में कुल सात वैज्ञानिक प्रयोग किए, जिनमें मांसपेशियों की सघनता, बीजों के अंकुरण, सूक्ष्मजीवों के व्यवहार जैसे विषय शामिल थे। लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार, ये सभी प्रयोग पहले ही अंतरिक्ष में कई बार हो चुके हैं और इनके परिणाम सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध हैं। यानी, इन प्रयोगों के लिए ISS जाना न वैज्ञानिक रूप से अनिवार्य था, न नया।
क्या थे वे पायलट?
नहीं। स्पेस-एक्स का ड्रैगन यान पूर्णतः ऑटोमेटेड है। यह ग्राउंड कंट्रोल और ऑनबोर्ड AI द्वारा संचालित होता है। अंतरिक्ष मिशन में “पायलट” शब्द का अर्थ भी आमतौर पर कमांडर का सहायक होता है, उड़ान नियंत्रक नहीं। शुक्ला भले ही एक प्रशिक्षित पायलट रहे हों, लेकिन इस मिशन में उन्हें कोई स्पेसफ्लाइट अनुभव नहीं मिला, जैसा प्रचारित किया गया।
मीडिया का उन्माद और जनता की भूख
मीडिया ने इस निजी मिशन को लेकर जिस तरह के अति-उत्साही नारे गढ़े —
“बन गए विश्वगुरु”, “अंतरिक्ष का नया बॉस भारत”, “उड़ा दिया गर्दा” —
वह न केवल ग़लत सूचना है, बल्कि हमारी विज्ञान के प्रति अपरिपक्व सोच को भी उजागर करता है।
जब कोई व्यक्ति निजी खर्च पर अंतरिक्ष की पर्यटक यात्रा करता है और मीडिया उसे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत करता है, तो सवाल उठना लाजिमी है —
क्या हम अब भी विज्ञान को समझने के बजाय, उसका इस्तेमाल भावनात्मक गौरव तुष्टि के लिए कर रहे हैं?


वैश्विक संदर्भ और तकनीकी अंतर
पचास साल पहले अमेरिका के वैज्ञानिक न केवल मंगल ग्रह तक भारी यान भेज चुके थे, बल्कि 12 बार मानव को चांद पर उतारने में सफल रहे।
आज, इसरो की सर्वश्रेष्ठ तकनीक 4000 किलोग्राम का पेलोड चंद्र कक्षा तक भेज पाती है, जबकि 1970 के दशक में नासा इससे छह गुना भारी यान मंगल तक भेज चुका था।
आत्ममुग्धता बनाम आत्मावलोकन
शुभांशु शुक्ला की अंतरिक्ष यात्रा निश्चित रूप से एक व्यक्तिगत उपलब्धि है। वह भी जब भारत से केवल कुछ ही लोग अब तक अंतरिक्ष तक पहुंच पाए हैं। लेकिन सवाल है —
क्या यह 500 करोड़ रुपये की खर्चीली यात्रा भारत के वैज्ञानिक विकास की परिचायक है, या फिर यह हमारे भीतर की वैज्ञानिक हीनभावना और आत्ममुग्धता का मिश्रण?
विज्ञान का अर्थ प्रचार नहीं, प्रगति है
विज्ञान का पहला गुण है — विनम्रता
जब तक हम धार्मिक आस्था और राष्ट्रवादी प्रचार को विज्ञान का स्थान देते रहेंगे, तब तक हम तकनीकी रूप से उन्नत राष्ट्रों की परछाइयों में ही खड़े रहेंगे।
शुभांशु शुक्ला के प्रयास की सराहना होनी चाहिए, लेकिन उतनी ही ज़रूरी है विवेकपूर्ण चर्चा, जिसमें यह पूछा जाए कि क्या यह यात्रा देश की वैज्ञानिक छलांग थी, या फिर विलासितापूर्ण भ्रमण को राष्ट्रगौरव में बदल देने की हमारी आदत?
शोर नहीं, शोध चाहिए। प्रचार नहीं, प्रगति चाहिए।
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