नीतीश सरकार ने खोला चुनावी पिटारा, नई सरकार को विरासत में मिलेगा 4 लाख करोड़ से अधिक का कर्ज का बोझ !
चुनाव के पहले RBI की शरण में नीतीश
दिल्ली / पटना केशव माहेश्वरी
बिहार में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कई लोकलुभावन घोषणाएं की हैं, जिनके लिए भारी भरकम राशि की जरूरत है। सरकार ने इन योजनाओं को पूरा करने के लिए रिजर्व बैंक से 16,000 करोड़ रुपये के कर्ज की मांग की है। अब यह सवाल उठ रहा है कि यदि नीतीश सरकार सत्ता में नहीं लौटती, तो आने वाली सरकार को यह कर्ज विरासत में संभालना होगा।
किन योजनाओं पर खर्च होनी है भारी रकम?
सामाजिक सुरक्षा पेंशन ₹400 से बढ़ाकर ₹1100 कर दी गई, जिससे हर महीने ₹1,200 करोड़ की जरूरत।
पंचायत प्रतिनिधियों, जीविका कर्मियों का वेतन बढ़ाया गया।
94 लाख गरीब परिवारों को ₹2-2 लाख देने की योजना।
1 अगस्त से 125 यूनिट मुफ्त बिजली देने की घोषणा।
इन सभी योजनाओं के लिए सरकार को अतिरिक्त फंड की आवश्यकता है, जिसे पूरा करने के लिए RBI से जुलाई से सितंबर तक कर्ज मांगा गया है।
विपक्ष का आरोप: ‘कर्ज पर चुनाव, बाद में बंद होंगी योजनाएं’
विपक्ष का कहना है कि नीतीश सरकार “कर्ज लेकर घी पी रही है” और चुनाव बाद जब पैसा नहीं होगा, तो सभी योजनाएं ठप पड़ जाएंगी। विपक्ष ने यह भी दावा किया कि यह केवल वोट पाने की कोशिश है और अस्थायी राहत के पीछे राज्य की आर्थिक स्थिरता दांव पर लगी है।
राज्य की कर्ज स्थिति चिंताजनक
सरकारी आंकड़ों के अनुसार:
इस वित्तीय वर्ष के अंत तक बिहार पर कुल कर्ज ₹4.06 लाख करोड़ हो जाएगा।
सरकार को हर दिन ₹63 करोड़ ब्याज देना पड़ता है।
2025-26 के बजट अनुमानों के अनुसार राज्य का राजकोषीय घाटा GSDP का 9.2% तक पहुंच सकता है, जो स्वीकृत सीमा से तीन गुना है।
2025-26 के अंत तक राज्य का बकाया कर्ज GSDP का 37% होने का अनुमान है।
विशेषज्ञों की राय : “कर्ज जरूरी, लेकिन सतर्कता भी जरूरी”
वित्तीय जानकारों का कहना है कि यदि कर्ज का इस्तेमाल उत्पादक योजनाओं में हो, तो इससे राज्य को दीर्घकालिक लाभ मिल सकता है। लेकिन राजस्व संग्रह में सुधार और टैक्स बेस का विस्तार किए बिना लगातार कर्ज लेना भविष्य में भारी बोझ बन सकता है।
विशेषज्ञों का सुझाव है कि बिहार को छोटे उद्योगों और निवेश आकर्षण की दिशा में काम करना चाहिए ताकि राज्य की आय बढ़े और कर्ज का दबाव कम हो।
नीतीश कुमार की चुनावी रणनीति में योजनाओं का पिटारा और कर्ज की चिट्ठी प्रमुख हथियार बने हैं। लेकिन अगर सत्ता में बदलाव होता है, तो नई सरकार को न केवल उन योजनाओं का बोझ उठाना होगा, बल्कि 4 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा के कर्ज का हिसाब भी देना पड़ेगा।
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