मोदी युग में पहली बार संघ प्रमुख खुद हुए अपने ही लोगों के निशाने पर ?
बदलते सत्ता-संघ संबंधों पर विशेष विश्लेषण !
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय राजनीति ने जिस तरह से करवट ली है, उसने केवल विपक्ष को ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) को भी असहज कर दिया है। भाजपा और संघ के संबंधों में दरार की आहट पहली बार नहीं सुनाई दी, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद जो दृश्य सामने आए, वे असाधारण थे – संघ प्रमुख मोहन भागवत तक को अपने ही विचार परिवार के समर्थकों द्वारा आलोचना और ट्रोलिंग का सामना करना पड़ा। यह ‘मोदी युग’ की एक नई और अहम पहचान बन गई है।
लेखक: के.पी. सिंह
मोदी और संघ: अब नियंत्रण के बाहर
संघ हमेशा से भाजपा की वैचारिक जननी रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में भी संघ की बातों को महत्व मिलता था। वाजपेयी ने सत्ता के लिए अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया – 1999 में सिर्फ एक वोट से हारकर उन्होंने कहा था कि “चिमटे से भी ऐसी सत्ता नहीं छूना चाहूंगा।” वह नैतिकता का प्रतीक था।
लेकिन मोदी का उदय नैतिकता से सत्ता की पूर्ण नीति परिवर्तन का प्रतीक बनकर उभरा। मोदी की भाजपा न किसी लक्ष्मण रेखा को मानती है, न संघ की अनुकंपा को। 2024 के चुनाव से पहले ही जेपी नड्डा का यह बयान – “अब पार्टी को संघ की जरूरत नहीं” – इस वैचारिक अलगाव की सार्वजनिक घोषणा थी।
चुनावी झटका और संघ का हस्तक्षेप
चुनाव में अपेक्षा से कमजोर प्रदर्शन के बाद मोदी को संघ की ओर फिर लौटना पड़ा। वे पहली बार संघ मुख्यालय पहुंचे, लेकिन 75 वर्ष की उम्र में राजनीति से संन्यास की परंपरा, जिसे मोदी ने खुद लागू करवाया था, अब उन्हीं पर लागू होती दिख रही है।
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हाल के भाषणों में अप्रत्यक्ष रूप से मोदी पर निशाना साधते हुए कहा कि “कोई खुद को कहने से भगवान नहीं बनता।” पर इस बार संघ के ये इशारे भाजपा समर्थक सोशल मीडिया वर्ग को रास नहीं आए। पहली बार भागवत को खुद संघ समर्थकों द्वारा ट्रोल किया गया, जिसमें उन्हें “संघ को कमजोर करने वाला” तक कहा गया।
मोदी के प्रति यह अंधसमर्थन केवल राजनीतिक नहीं, सामाजिक मनोविज्ञान का भी प्रतिबिंब है। भारत का बहुसंख्यक समाज ऐतिहासिक पराजयों, हीनता और नेतृत्वहीनता से उपजी एक सामूहिक कुंठा से ग्रस्त रहा है। जब कोई नेता हर संस्था, परंपरा और मर्यादा को तोड़ते हुए “सब पर भारी” दिखता है, तो वही कुंठा उसे पराक्रम मान बैठती है। यही कारण है कि मोदी का निरंकुश नेतृत्व कई बार लोगों को सत्ता के साहसी प्रतीक जैसा लगता है, भले ही वह लोकतंत्र के संतुलन को तहस-नहस कर रहा हो।
संघ की सीमित भूमिका
मोहन भागवत चाहे जितनी भी बेबाक राय रखें, मोदी के जमे हुए जादू को तोड़ने की उनकी क्षमता अब सीमित हो गई है। उन्होंने जब जातिव्यवस्था पर बयान दिया या ब्राह्मणवाद पर कटाक्ष किया, तब भी उन्हें संघ समर्थक समुदाय के आक्रोश का सामना करना पड़ा। अब मोदी जैसे नेता के विरुद्ध हल्के ताने या संकेत समर्थकों की नज़र में संघ की ‘गद्दारी’ बन चुके हैं।
संघ और देश का ‘मोदीनिर्भर’ भविष्य
इस समय भाजपा और संघ के बीच सत्तानिष्ठा और नैतिकता का संघर्ष चल रहा है – और इसमें नैतिकता पराजित दिख रही है। जब तक नरेंद्र मोदी शारीरिक रूप से सक्रिय हैं और जनता के एक बड़े वर्ग का मानसिक समर्थन उनके साथ है, तब तक संघ उन्हें प्रधानमंत्री पद से डिगा नहीं पाएगा।
भारत के राजनीतिक, वैचारिक और संस्थागत संतुलन के लिए यह एक गहरी चुनौती है – जहां एक व्यक्ति का वर्चस्व पूरी पार्टी, संगठन और विचारधारा पर भारी पड़ रहा है। यह भविष्य के लिए चिंतन और आत्ममंथन का विषय है – केवल संघ के लिए नहीं, समूचे राष्ट्र के लिए।
यह लेख लेखक के निजी विचारों पर है। इसमें व्यक्त राय से संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है।
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