शिक्षक या चप्पल निरीक्षक? CET ड्यूटी का अपमानजनक आदेश
डॉ सत्यवान सौरभ
हरियाणा सरकार द्वारा CET (कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट) परीक्षा के दौरान शिक्षकों को बस स्टैंडों पर ड्यूटी देने का निर्णय महज एक प्रशासनिक भूल नहीं, बल्कि शिक्षा व्यवस्था की आत्मा पर प्रहार है। हरियाणा भर में जिस तरह अध्यापकों ने हाथों में बैनर लेकर “हमें परीक्षा केंद्र दो, न कि बस अड्डा”, जैसे नारे लगाए — वह केवल व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश नहीं था, वह शैक्षिक गरिमा की चीख थी।
क्या यह वही समाज है जो गुरुओं को भगवान से ऊँचा मानता है? या फिर वही तंत्र है जो शिक्षक को परीक्षा के दिन एक ‘ड्राइवर मैनेजर’ या ‘चप्पल गिनने वाला’ बना देता है?
शिक्षक नहीं, सेवक बना दिए गए हैं!
हरियाणा में हजारों की संख्या में ऐसे शिक्षक हैं जो वर्षों से बच्चों को भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं। मगर जब राज्य सरकार और कर्मचारी चयन आयोग जैसे संस्थान इन्हें बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन पर खड़ा कर देते हैं — तो सवाल उठता है कि क्या शिक्षक अब शिक्षा से हटाकर व्यवस्था की गुलामी में धकेले जा रहे हैं?
पानीपत, करनाल, हिसार, फरीदाबाद, गुरुग्राम सहित हरियाणा के जिलों में CET परीक्षा के लिए शिक्षकों को पेपर ड्यूटी की बजाय ट्रैफिक, पार्किंग और अभ्यर्थियों के इंतजार स्थलों पर भेजा गया। यानी वे पूछते रहे – “आपका सेंटर कहां है? चप्पल बाहर उतारिए।” क्या यही उनकी भूमिका है?
सरकार की नीयत पर सवाल
सरकार अक्सर शिक्षकों से अपेक्षा करती है कि वे ईमानदारी से कार्य करें – चाहे चुनाव हो, जनगणना हो, बाढ़ राहत हो या परीक्षा। और शिक्षक हर बार बिना विरोध किए डटकर खड़े भी रहते हैं।
मगर जब परीक्षा से जुड़े दिन, जहाँ उनकी शैक्षणिक क्षमता सबसे ज़रूरी होती है, उन्हें शिक्षा व्यवस्था से बाहर खड़ा कर दिया जाता है, तो यह न केवल तर्कहीन है बल्कि अपमानजनक भी।
क्या शिक्षा विभाग को यह समझ नहीं आता कि एक शिक्षक परीक्षा केंद्र में अनुशासन बनाए रखने और कदाचार रोकने में सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी होता है?

प्रशासनिक सहूलियत या मानसिक लापरवाही?
प्रशासन का कहना है कि बड़ी संख्या में परीक्षार्थियों के कारण ट्रैफिक नियंत्रण और मार्गदर्शन के लिए स्टाफ चाहिए। यह तर्क अपनी जगह सही हो सकता है, पर क्या इसके लिए शिक्षकों को ही चुना जाना आवश्यक था? क्या पुलिस, NCC कैडेट्स, NSS वालंटियर्स या अस्थायी ड्यूटी कर्मी नहीं हो सकते?
शिक्षक कोई चाकरी करने वाला नहीं। वह समाज के बौद्धिक नेतृत्व का प्रतिनिधि होता है।
जब वही हाथ बस अड्डे की सीढ़ियों पर खड़े होकर नाम पुकारें,
और वही आँखें जूते-चप्पलों की निगरानी करें,
तो यह पूरी व्यवस्था की सोच का दीवालियापन है।
हरियाणा में विरोध क्यों भड़का?
CET ड्यूटी के खिलाफ हरियाणा के अनेक जिलों में सरकारी अध्यापकों ने खुलेआम प्रदर्शन किया। उन्होंने कहा कि परीक्षा ड्यूटी एक अकादमिक जिम्मेदारी है, लेकिन उन्हें बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, पार्किंग स्थल, वेटिंग जोन, और पानी वितरण काउंटरों पर खड़ा किया जा रहा है — बिना ट्रेनिंग, बिना छाया, बिना मूलभूत सुविधाओं के।
एक महिला शिक्षक का वीडियो वायरल हुआ, जिसमें वह कह रही थी — “हमें शिक्षा की जिम्मेदारी दीजिए, व्यवस्था की नहीं। हम शिक्षक हैं, ट्रैफिक इंस्पेक्टर नहीं।”
ऐसे हालात में शिक्षकों का आक्रोश अकारण नहीं।
क्या परीक्षा केंद्रों पर पर्याप्त स्टाफ नहीं था?
एक बड़ी चिंता यह भी है कि जब शिक्षकों को बस स्टैंड भेजा गया, तो परीक्षा केंद्रों पर आउटसोर्स कर्मचारियों और निजी स्कूलों के अस्थायी कर्मचारियों से काम चलाया गया।
यह प्रश्न उठता है कि आखिर शिक्षा की गुणवत्ता की जिम्मेदारी किसके पास है?
क्या सरकारी शिक्षक केवल ‘फिलर’ हैं जिन्हें जहाँ चाहा, खड़ा कर दिया?
शिक्षक की गरिमा का क्षरण क्यों?
भारत का इतिहास रहा है कि जहाँ शिक्षक बोलते थे, वहाँ राजा झुकते थे। चाणक्य से लेकर अब्दुल कलाम तक, यह परंपरा रही है कि शिक्षक नीतियों का निर्माता होता है, पहरेदार नहीं।
मगर अफ़सोस कि अब वही शिक्षक ड्यूटी चार्ट में एक नंबर बनकर रह गया है — “08:00 से 05:00, लोकेशन: बस स्टैंड, कार्य: उम्मीदवारों को दिशा-निर्देश देना।”
क्या आज शिक्षक सम्मान मांगता है, या सिर्फ अपना कर्तव्य याद दिला रहा है?
समझिए शिक्षक का मनोविज्ञान
शिक्षक का कार्य न सिर्फ बच्चों को पढ़ाना है, बल्कि परीक्षा जैसे आयोजनों में नैतिकता और अनुशासन को बचाए रखना भी है। मगर जब वही शिक्षक अनुशासनहीन भीड़ के बीच, सार्वजनिक स्थल पर, किसी पहचान के बिना खड़ा कर दिया जाता है, तो उसका आत्मविश्वास टूटता है।
इसका असर न सिर्फ उसके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है, बल्कि आने वाले समय में उसकी जिम्मेदारी निभाने की इच्छा पर भी।
शिक्षा विभाग की चुप्पी और राजनीतिक सन्नाटा
सवाल यह है कि हरियाणा के शिक्षा मंत्री, HSSC, और जिला उपायुक्त जैसे जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग चुप क्यों हैं?
क्या यह शिक्षक समुदाय की आवाज़ सुनने के लिए तैयार नहीं, या उन्हें इसकी ज़रूरत ही महसूस नहीं होती?
राजनीतिक दलों ने भी अभी तक इस मुद्दे पर जिम्मेदारी से न प्रतिक्रिया दी, न समाधान सुझाया।
शिक्षकों को केवल चुनावी सभा में “बुद्धिजीवी वर्ग” कह देने से काम नहीं चलेगा।
क्या यह आंदोलन और तेज होगा?
शिक्षक संगठनों ने चेतावनी दी है कि अगर भविष्य में भी इसी तरह की ड्यूटी लगाई गई, तो वे CET और अन्य परीक्षाओं का बहिष्कार करेंगे।
यानी बात सिर्फ CET 2025 की नहीं, बल्कि एक व्यापक असंतोष की शुरुआत हो चुकी है।
समाधान क्या हो सकता है?
1. ड्यूटी निर्धारण में पारदर्शिता — शिक्षकों को केवल अकादमिक कार्यों में लगाया जाए।
2. बदलाव लाएं वैकल्पिक संसाधनों से — ट्रैफिक व गाइडेंस कार्यों के लिए प्रशिक्षित गैर-शैक्षणिक कर्मचारी तैनात किए जाएं।
3. शिक्षकों के साथ संवाद — फैसलों से पहले प्रतिनिधियों की राय ली जाए।
4. आत्मसम्मान की सुरक्षा — शिक्षकों को प्रशासनिक व्यवस्थाओं का ‘लोगतांत्रिक श्रमिक’ न समझा जाए।
अंतिम शब्द: शिक्षा बचाइए, शिक्षकों को मत खोइए
एक शिक्षक को परीक्षा केंद्र से बाहर भेज देना,
उसके ज्ञान से अधिक उसके शरीर का उपयोग करना,
और फिर उसके मौन से यह उम्मीद करना कि वह हर बार बिना सवाल किए व्यवस्था का हिस्सा बना रहेगा —
यह सोच हमें एक दिन उन गुरुओं से वंचित कर देगी, जिनसे हम भविष्य की आशा करते हैं।
समय आ गया है कि सरकार, समाज और सिस्टम,
शिक्षक को फिर से “कर्मचारी” नहीं, “गुरु” माने।
वरना अगली पीढ़ियाँ जब पूछेंगी —
“पढ़ाने वाला चप्पल गिनता क्यों था?”
तो हमारे पास कोई उत्तर नहीं होगा।
डॉ सत्यवान सौरभ
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