आखिर फट क्यों जाते है बादल , जिस वजह से असमय मर जाते है सैकडो लोग ?
हिमालयी राज्यों में बादल फटना बना मौत का पैगाम
किश्तवाड़ से उत्तरकाशी तक क्यों बढ़ रही तबाही?
जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में हाल ही में बादल फटने से मची तबाही ने एक बार फिर सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर हिमालयी राज्यों में ऐसी घटनाएं बार-बार क्यों हो रही हैं? उत्तराखंड के उत्तरकाशी और धराली से लेकर हिमाचल और कश्मीर तक लगातार क्लाउडबर्स्ट के मामले सामने आ रहे हैं, जिनसे जान-माल की भारी हानि हो रही है। तस्वीरें और वीडियो साफ बताते हैं कि पहाड़ों पर यह प्राकृतिक आपदा किस कदर भयावह रूप ले चुकी है।
क्या होता है बादल का फटना?
मौसम विज्ञानियों के अनुसार, किसी छोटे से इलाके में अचानक बहुत अधिक मात्रा में बारिश होना ही क्लाउडबर्स्ट कहलाता है। एक घंटे में 10 सेंटीमीटर या उससे अधिक बारिश जब सीमित क्षेत्र में गिरती है तो उसकी रफ्तार और दबाव इतनी तीव्र होती है कि यह फ्लैश फ्लड यानी अचानक आई बाढ़ में बदल जाती है। पहाड़ों की ढलानों से पानी के साथ बोल्डर, मिट्टी, लकड़ी और गाद भी बहकर नीचे आते हैं, जिससे नुकसान कई गुना बढ़ जाता है।
इस बार घटनाएं क्यों बढ़ीं?
विशेषज्ञों का मानना है कि इस मानसून सीजन में हवा में नमी बहुत अधिक है। इसी वजह से पहाड़ों पर बादल तेजी से बन रहे हैं और छोटे-छोटे कैचमेंट एरिया में वे 100 मिमी प्रति घंटा तक पानी गिरा रहे हैं। यही कारण है कि उत्तराखंड, हिमाचल और कश्मीर जैसे संवेदनशील इलाकों में इस बार बादल फटने की घटनाएं ज्यादा देखने को मिल रही हैं।
तबाही को और कौन बढ़ाता है?
तंग और खड़ी घाटियां पानी की रफ्तार को और तेज कर देती हैं।
क्लाउडबर्स्ट के बाद अक्सर ऊपर अस्थायी झीलें बन जाती हैं, जिनके टूटने पर और भीषण बाढ़ आती है।
नदी-नालों में अतिक्रमण, सड़क और हाइड्रो प्रोजेक्ट्स की अनियोजित कटाई, डेब्रिस डंपिंग और वनों की अंधाधुंध कटाई भी तबाही को और बड़ा बनाती है।




क्या भविष्यवाणी संभव है?
मौसम विभाग बड़े स्तर पर भारी बारिश का अलर्ट तो जारी कर सकता है, लेकिन गांव या घाटी स्तर पर सटीक क्लाउडबर्स्ट की भविष्यवाणी वर्तमान में संभव नहीं है। हालांकि, रडार कवरेज, रेन-गेज और रियल टाइम मॉनिटरिंग से नुकसान कम करने के प्रयास किए जा सकते हैं।
बादल फटने की पिछली बड़ी घटनाएं
2024: हिमाचल प्रदेश में मानसून के दौरान 27 क्लाउडबर्स्ट, 59 मौतें।
2021: जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में 26 लोगों की जान गई।
2013: केदारनाथ त्रासदी, सैकड़ों मौतें।
2010: लेह में बादल फटने से 115 मौतें।
आगे क्या ज़रूरी?
विशेषज्ञ मानते हैं कि अब वक्त आ गया है कि हर घाटी के माइक्रो-कैचमेंट का वैज्ञानिक नक्शा तैयार किया जाए, नदियों और उनके किनारों पर निर्माण सख्ती से रोका जाए, और गांव स्तर तक मोबाइल अलर्ट की प्रणाली लागू की जाए। अन्यथा, हिमालयी राज्यों में हर साल मानसून का मौसम तबाही का पैगाम बनता रहेगा।
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