क्या ट्रंप बन चुके हैं अंतरराष्ट्रीय ‘पलटूराम’ ? शायद ट्रंप ले रहे हैं भारतीय कारपोरेट जगत से प्रेरणा !
भारत पर टैरिफ टालने की रणनीति और सवाल
भारत की निजी कंपनियों में एक आम परंपरा है—प्रत्येक महीने में कर्मचारियों को एक निश्चित ‘टारगेट’ दे दिया जाता है। और कर्मचारी टारगेट को पूरा करने के लिए लगे रहते हैं पर महीने का अंतिम होते-होते जब टारगेट पूरा नहीं होता है या टारगेट से कुछ दूरी रहती है तो उन्हें साफ कहा जाता है कि अगर बिक्री का लक्ष्य पूरा नहीं हुआ, तो महीने का “क्लोजिंग” नहीं होगा और यदि आखिरी तारीख तक भी लक्ष्य पूरा नहीं हो पाता, तो वही क्लोजिंग डेट कुछ दिन आगे बढ़ा दी जाती है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हालिया रणनीति को देखकर लगता है कि शायद उन्होंने भी भारत की इस कॉर्पोरेट शैली से प्रेरणा ली है। दरअसल, ट्रंप ने भारत पर प्रस्तावित 25% टैरिफ लागू करने की तारीख एक बार फिर टाल दी है। यह टैरिफ जो 1 अगस्त 2025 से प्रभावी होना था, अब 7 अगस्त तक के लिए टाल दिया गया है। यानी, जो “डेडलाइन” 31 जुलाई रात 12 बजे तक की थी, वह अब 6 अगस्त रात 12 बजे तक खिसक गई है—बिलकुल वैसे ही जैसे किसी सेल्स टारगेट की एक्सटेंशन होती है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या यह आखिरी तारीख है? ट्रंप के इतिहास को देखें, तो शायद नहीं। अगर अमेरिका के अधिकारी या ट्रंप प्रशासन 6 अगस्त तक भी कोई स्पष्ट स्थिति नहीं बना पाते, तो बहुत संभव है कि तारीख एक बार फिर बढ़ा दी जाए। क्योंकि अंततः “टारगेट” तो पूरा करना ही है, चाहे जितनी बार डेडलाइन बदलनी पड़े।
राजनीति में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ‘पलटूराम’ के नाम से जाना जाता है, लेकिन डोनाल्ड ट्रंप ने तो फैसले पलटने में उन्हें भी पीछे छोड़ दिया है। भारत की सोशल मीडिया पर अब यह तक कहा जाने लगा है कि अगर नीतीश कुमार भारत के ‘पलटूराम’ हैं, तो डोनाल्ड ट्रंप को ‘अंतरराष्ट्रीय पलटूराम’ घोषित कर देना चाहिए।
अब यह उथल-पुथल केवल हास्य का विषय नहीं रह गया है। अमेरिका की वैश्विक साख पर भी सवाल उठने लगे हैं। लगातार बदलते बयानों और नीतियों के कारण लोग पूछने लगे हैं कि क्या वाकई डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के ही राष्ट्रपति हैं या फिर वे पाकिस्तान के राष्ट्रपति की भूमिका में आ गए हैं? क्योंकि आज के दौर में दोनों देशों के मुखिया कब, कैसे और क्यों पलट जाएं—इसका कोई भरोसा नहीं रह गया है।
भारत-अमेरिका व्यापारिक संबंधों की यह स्थिति किसी कॉर्पोरेट सेल्स स्ट्रैटेजी जैसी लग रही है, जिसमें टारगेट जरूरी है—लेकिन समय सीमा लचीली। और डोनाल्ड ट्रंप, एक वैश्विक नेता होकर भी, इस लचीलेपन का उपयोग इतनी बार कर चुके हैं कि अब उनकी राजनीतिक गंभीरता पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है।
Leave a Reply
Want to join the discussion?Feel free to contribute!