खरी खरी : अमेरिका के निशाने पर भारत नहीं – मोदी हैं जबकि चीन के निशाने पर मोदी नहीं – भारत है !
जबसे अमेरिका ने टेरिफ लगाया है तबसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तीन बातों का जिक्र बारबार करते रहते हैं – आत्मनिर्भर भारत, स्वदेशी और मेक इन इंडिया। पीएम मोदी के लिए आत्मनिर्भर भारत का मतलब है कार्पोरेट के पास पैसा होना चाहिए, वह पैसा सफेद हो या काला सब चलेगा, कार्पोरेट के लिए रास्ता निकलना चाहिए क्योंकि अगर कार्पोरेट कमजोर पड़ गया तो मौजूदा राजनीतिक सत्ता कमजोर पड़ जायेगी। भारत की राजनीति को कमजोर कर देगी। आत्मनिर्भरता ब्लैक हो या व्हाइट कार्पोरेट के साथ खड़े होना होगा वर्ना मोदी सत्ता की आत्मनिर्भरता के सामने संकट खड़ा हो जायेगा। मोदी के स्वदेशीकरण का मतलब है कि भारत के भीतर चीन कितनी भी इंडस्ट्री लगा ले लेकिन रोजगार भारतियों को दे। मोदी ने तो स्वदेशी को पसीने से जोड़ दिया है, मजदूरी से जोड़ दिया गया है। मेक इन इंडिया का अभी तक का सच यही है कि यदि चीन कच्चा माल देना बंद कर दे तो मेक इन इंडिया डहडहा जायेगा और अब जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के स्वाभिमान को दरकिनार करते हुए चीन के साथ गलबहियाँ डालने को बेताब हैं तो क्या चीन भारत के मेक इन इंडिया को पूरी तरह से गोद ले लेगा और देश के भीतर एक ऐसी परिस्थिति बन जायेगी जहां पर सब कुछ चीन तय करेगा यानी आत्मनिर्भरता का नारा, स्वदेशी का नारा और मेक इन इंडिया का नारा या कहें वोकल फार लोकल वह भी ग्लोबल के दायरे से निकलेगा क्योंकि हमें हरहांल में पूंजी चाहिए, पैसा चाहिए, रोजगार चाहिए, कच्चा माल चाहिए अन्यथा देश की इकोनॉमी चरमरा जायेगी, परिस्थितियां नाजुक हैं।
भारत की इकोनॉमी, भारत के कार्पोरेट, भारत की पाॅलिटिक्स और मौजूदा समय में चल रही फिलासफी टकराव की है तथा टकराव की राजनीति के भीतर डाॅलर है, करेंसी है। अंतरराष्ट्रीय ग्लोबलाइजेशन के तहत मल्टी नेशनल कंपनियों का होना है जिनकी पहचान तो भारत से जुड़ी है लेकिन उनके हेडक्वार्टर दुबई, सिंगापुर, लंदन, न्यूयॉर्क में खुले हुए हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार अमेरिका के केन्द्र में चीन खड़ा है और चीनी डिप्लोमेटस् तथा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी इस बात को समझ चुकी है कि नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बनाने की दिशा में कदम बढ़ाने होंगे, वैश्विक गवर्नेंस की परिस्थिति जो ट्रंप के बाद से नाजुक हो गई है उसको बेहतर बनाना पड़ेगा तभी सुरक्षा, इकोनॉमी, आपसी संबंध इन सभी सवालों को लेकर एससीओ की भूमिका व्यापक होगी। 2001 में चीन, रूस, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान और किर्गिस्तान ने मिलकर शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का गठन किया गया था जिसका विस्तार करते हुए 2017 में भारत, पाकिस्तान, ईरान और बेलारूस को शामिल किया गया। तियानजिन में हो रही बैठक को एससीओ प्लस इसलिए कहा जा रहा है कि इसमें पर्यवेक्षक देश के तौर पर अजरबैजान, आर्मेनिया, कंबोडिया, तुर्की, मिस्र, मालदीव, नेपाल, म्यांमार तथा बतौर अतिथि देश इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, वियतनाम की मौजूदगी भी है। यानी कुल मिलाकर 22 देशों के राष्ट्राध्यक्ष शिरकत कर रहे हैं। जिस तरह से ट्रंप के टेरिफ वार को लेकर भारत और अमेरिका के रिश्तों में दूरी बढ़ी है उसने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को एक सुनहरा अवसर दे दिया है इस मायने में कि अमेरिकी प्रभाव से मुक्त दुनिया को कैसे बनाया जाय। चीन उस दिशा में काम भी कर रहा है। मध्य एशिया के अधिकतर नेताओं की मौजूदगी के बीच चीन ने 3 दिसम्बर को बीजिंग में बकायदा अपने मिसाइलों और युध्दक विमानों की सैन्य परेड निकाली है और उस वक्त वहां पर 18 राष्ट्राध्यक्षों की मौजूदगी भी थी, भारत को छोड़कर । इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि दुनिया की आधी आबादी तथा 25 फीसदी जीडीपी एससीओ के साथ है साथ ही 25 फीसदी भू-भाग भी एससीओ के भीतर है। इसीलिए चीनी डिप्लोमेटस् और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी एससीओ को दुनिया की सबसे अहम बैठक के तौर पर बनाने का प्रयास कर रही है।
भारत की जनता, वोटर, बेरोजगारी, किसान, मजदूर, 99 फीसदी वह लोग जिनकी प्रति व्यक्ति आय दुनिया में सबसे कम है और एक फीसदी की ताकत के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इतना तो समझ ही गये हैं कि अगर अमेरिका उनकी गद्दी को डिगाने की दिशा में कदम उठाता है तो उन्हें समय रहते बड़े देशों को साथ लेना पड़ सकता है। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय तौर पर एक तरफ ट्रंप खड़े हैं तो दूसरी तरफ मोदी लेकिन इन सबके बीच अभी तक शी जिनपिंग अमेरिका के निशाने पर नहीं हैं लेकिन मोदी को शी जिनपिंग का साथ चाहिए लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर से मोदी को लेकर सहमति बनी नहीं है। किसानी को लेकर अमेरिका के रास्ते जो संकट आता हुआ दिखाई दे रहा है वह चीन की सरपरस्ती से पूरी तरह से खत्म हो जायेगा या फिर आने वाले समय में खाद की तरह से बीज के संकट को भी दूर करेगा। क्योंकि आज भी टेक्टर के सामान से लेकर खेती के उपयोग में आने वाले तमाम संसाधन ही नहीं बल्कि हर टेक्नोलॉजी का कच्चा माल चीन से ही आता है और इस बात को हर कोई जानता है।
फ्लैशबैक में झांके तो पांच महीने पहले की ही तो बात है जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वाशिंग्टन में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ बैठकर भारत और अमेरिका के बीच व्यापार को ऊंचाई देने का लब्बोलुआब रखा था। इसके पहले भी जब ट्रंप ने राष्ट्रपति की शपथ ली थी जनवरी में तो सबसे पहली बैठक भारत, आस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका के विदेश मंत्रियों की क्वाड को लेकर ही हुई थी जिसमें क्वाड की बैठक साल के अंत में भारत में होना तय किया गया। यह भी तय किया गया कि क्वाड की बैठक में राष्ट्रपति ट्रंप भी शामिल होंगे। यानी अमेरिका के निशाने पर चीन था। भारत और अमेरिका की प्रगाढ़ता का जिक्र न्यूयार्क टाइम्स और फाक्स न्यूज के साथ ही सीएनएन ने भी खुलकर किया था। मगर पिछले पांच महीने ने प्रगाढ़ता की सारी कहानी को उलट पलट कर रख दिया है और अब साल के अंत में भारत के भीतर होने वाली क्वाड की बैठक में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मौजूदगी नहीं होगी । जनवरी 2025 में अमेरिकी विदेश मंत्री के साथ हुई भारतीय विदेश मंत्री की बातचीत में भारतीय विदेश मंत्री ने ऐसी कौन सी खता कर दी कि चीन में हो रही एससीओ की बैठक में मोदी ने जयशंकर को ले जाने के लायक ही नहीं समझा जबकि जयशंकर लम्बे समय तक चीन में भारत के राजदूत रह चुके हैं और इसी योग्यता के आधार पर ही तो उन्हें मोदी ने अपने मंत्रीमंडल में जगह देकर विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी है। मोदी और जिनपिंग के बीच हुई प्रतिनिधि मंडल की बैठक में चीनी विदेश मंत्री अपने राष्ट्रपति के बगल में बैठे नजर आये। मोदी के प्रतिनिधि मंडल में उस विदेश सचिव को शामिल किया गया है जो आपरेशन सिंदूर के दौरान हुए सीजफायर की ब्रीफिंग के वक्त पत्रकारों का जवाब तक नहीं दे पाया था।
इस बरस के अंत तक रशिया, चाइना और भारत की बैठक होने के आसार हैं। चीनी शासनाध्यक्ष शी जिनपिंग की भी पीएम मोदी के न्यौते पर दिल्ली अगवानी की खबर है, लेकिन अभी तक कम्युनिस्ट पार्टी ने कोई सहमति जताई नहीं है (चाइना का राष्ट्रपति कम्युनिस्ट पार्टी की अनुमति के बिना पंखा भी नहीं झल सकता है)। 2025 बीतते – बीतते भारत की राजनीति के भीतर संकट, इकोनॉमी का संकट, भारत की अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में व्यापक बदलाव क्या ये सिर्फ एक परिस्थिति है जिसमें भारत ने हर बार कहा कि किसानों, पशुपालकों, छोटे व्यापारियों को नुकसान से बचाने के लिए अमेरिकी सामानों को भारत आने नहीं दिया जायेगा लेकिन अगर चीन के साथ सहमति बन जाती है तो क्या भारत के किसान, पशुपालक, छोटे व्यापारियों का संकट टल जायेगा। गुजरात और हिमाचल प्रदेश में तो पीएम ने खुलकर कहा है कि भारत के भीतर उद्योग लगने चाहिए पूंजी का काला या सफेद होना कोई मायने नहीं रखता है। देश के भीतर किसानों से बड़ा संकट तो उन कारपोरेटस् के सामने खड़ा दिखाई दे रहा है जिसने मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने नेटवर्थ को हवाई उड़ान दी। भारत के कार्पोरेट का लिया हुआ कर्ज डाॅलर की शक्ल में है। अमेरिका डाॅलर और करेंसी की लड़ाई लड़ रहा है। अमेरिका के वाइस प्रेसीडेंट के अलावा फाइनेंस मिनिस्टर ने तो फाक्स न्यूज पर इंटरव्यू देते समय कहा था कि आज की तारीख में रुपया बेहद कमजोर है, जैसे वह कह रहे थे कि हम चाहें तो एक झटके में एक डाॅलर को एक सौ रुपये का कर सकते हैं और इससे कारपोरेटस् हाउस की नींद उड़ जायेगी।
अगर भारत के अंदर कारपोरेटस् नहीं होंगे तो राजनीतिक सत्ता डांवाडोल हो जायेगी। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चाइना पहुंचने पर न्यूयार्क टाइम्स और फाक्स न्यूज में छपी यह खबर चर्चा में बनी रही कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इसलिए निशाने पर लिया गया है क्योंकि उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का साथ नहीं दिया जो वह नोवल प्राइज के लिए चाहते थे। एससीओ और ब्रिक्स की अगुवाई चीन कर रहा है फर्क सिर्फ इतना ही है कि एससीओ में पाकिस्तान शामिल है मगर ब्रिक्स में नहीं। ग्लोबल गवर्नेंस के तौर तरीकों को बदलने की सोच के साथ एससीओ काम पर लगा हुआ है। शायद इसीलिए शी जिनपिंग ने दुनिया की दो संस्कृति का जिक्र किया है। पीएम मोदी इस बात को समझते हैं कि देश के कारपोरेटस् को अमेरिका से दरकिनार नहीं किया जा सकता है। डाॅलर की सीमा रेखा से बाहर लाना नामुमकिन है। अमेरिका द्वारा फोल्डर बंद करने के बाद भी बातचीत जारी रखने की कवायद की जा रही है। चीन इस दौर में सबसे शक्तिशाली होकर सामने आ रहा है तथा दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और रशिया के बीच की फिलासफी में चीन हासिये पर था लेकिन पहली बार चीन के जरिए एक ऐसी स्थिति उभर रही है जहां सवाल तेल का हो या गैस का, ग्रीन इनर्जी का हो या मैन्युफैक्चरिंग का, या फिर डिजिटल इकोनॉमी का ही क्यों न हो सब कुछ सम्हालने की स्थिति में चीन आकर खड़ा हो गया है।
भारत के भीतर कारपोरेटर मुकेश अंबानी का अपना एक थिंक टैंक भी चलता है जिसे अमेरिका में विदेश मंत्री जयशंकर का बेटा ही देखता है तो क्या भारत के बारे में तमाम जानकारी अमेरिका तक उसी थिंक टैंक के जरिए पहुंच रही है। सवाल उठने लगे हैं कि क्या भारत की राजनीतिक परिस्थितियों के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कमजोर हो चले हैं। अगर कार्पोरेट न रहे तो क्या और कमजोर हो जायेंगे। उनको लेकर बीजेपी और आरएसएस के भीतर जो सवाल उठ रहे हैं उसके जरिए भी वे कमजोर हो रहे हैं। भारत की डेमोक्रेसी को लेकर भी ढेर सारे सवाल हैं। भारत की इकोनॉमी को लेकर भी सवाल उठाये जा रहे हैं। तो क्या इन सारी परिस्थितियों के बीच अमेरिका हस्तक्षेप कर सकता है। लगता है उठ रहे ढेर सारे सवालों का कोई जवाब पीएम मोदी के पास है नहीं, इसलिए वे चीन के पाले में जाकर खड़े हो गए हैं और दो महीने पहले तक आपरेशन सिंदूर के बाद भारत के भीतर चीन की भूमिका को लेकर जो वातावरण बना था उसे एक झटके में बदलने की कोशिश की जा रही है । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आजादी के बाद भारत की बदलती हुई डिप्लोमेशी के भीतर ये एक बिल्कुल नया पाठ है जिसमें भारत की राजनीतिक सत्ता, किसान, कार्पोरेटस्, इकोनॉमी के साथ ही दुनिया के अलग – अलग देशों के साथ किये जा रहे द्वि-पक्षीय व्यापार संबंध सब कुछ या तो दांव पर हैं या फिर एक नई बिसात बिछाई जा रही है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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