खरी-खरी : मृतप्राय हो गया भारत का राष्ट्रीय मीडिया
2014 के बाद से देश के भीतर में ले दे के केवल तीन चीजें ही तो बाकी रह गई हैं – मुसलमान, राजनीति यानी सियासत और मीडिया। भारत का मीडिया भी मुसलमान और सियासत के बीच जाकर खड़ा हो गया है। पहलगाम में जिस तरह से नये तरीके का आतंकवाद सामने आया और पूरे देश में जिस तरह से आतंकवाद की खिलाफत दिखाई दी तथा मीडिया की कवरेज जिस तरीके से सामने आई वैसी देश में इसके पहले कभी देखने में नहीं आई है। जम्मू-कश्मीर सहित देश के तमाम हिस्सों में जिस तरह से आतंकवादी घटना को लेकर प्रदर्शन करते हुए एकजुटता दिखाई वो सारे नजारे राष्ट्रीय मीडिया ने परिदृश्य से गायब कर दिये और कुछ ऐसी खबरें प्रकाशित करनी शुरू कर दी कि जैसे भारत – पाकिस्तान युद्ध के मैदान में आमने सामने आकर खड़े हो चुके हैं। वह सेना के मूवमेंट को इस तरह से दिखाने लगा जैसे वह कुरूक्षेत्र की ओर कूच कर रही है। मीडिया यह भूल गया कि भले ही युद्ध दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया हो तब भी मीडिया को देश की सेना के मूवमेंट को जो पडोसी देश पाकिस्तान के मद्देनजर रचा बसा जा रहा है उसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं करनी चाहिए। गोदी मीडिया की इस गैरजिम्मेदाराना बचकानी हरकतों के कारण ही आखिरकार केन्द्र सरकार को एडवाइजरी जारी करनी पड़ गई।
गोदी मीडिया तो यह मानकर चलने लगा कि भारत पाकिस्तान के बीच लड़ाई होना तय है और देश के एक समुदाय विशेष को टार्गेट करके ऐसी डिबेटें चलाई जानी शुरू कर दी गई कि वह कभी भी एकजुटता दिखा नहीं सकता। राष्ट्रीय चैनलों पर समुदाय विशेष की एकजुटता को खलनायकी के तौर पर परोसा जाने लगा यहां तक कि पाकिस्तान के गेस्ट चैनलों पर बैठकर ठहाके लगाते हुए अपनी प्रतिक्रिया देने लगे मगर शर्मनाक पहलू यह है कि उस डिबेट में कश्मीर का पक्ष रखने वाले किसी बंदे को शामिल नहीं किया गया। नेशनल मीडिया ने मोदी सरकार की छबि को कुछ इस तरह से पेश करने की कोशिश की जैसे वह अपनी सियासत को साधने के लिए कश्मीर को एक प्यादा मानकर चल रही है या फिर कश्मीर को चौसर बनाकर उस पर पांसे फेंकना चाहती है। इसीलिए पहलगाम घटना के गुस्साए लोगों द्वारा घाटी में किए गए प्रदर्शन से नेशनल मीडिया की खिलाफत के स्वर (गोदी मीडिया हाय-हाय, कश्मीर से आवाज आई हिन्दू मुस्लिम भाई- भाई) सुनाई दिए । घाटी ने पहली बार एकजुटता को दर्शित करते हुए जिस तरह से महिलाओं, लड़कियों सहित समाज के सभी वर्ग के लोगों ने प्रदर्शन किए ऐसे प्रदर्शन न तो पुलवामा घटना के दौरान दिखाई दिए न ही पठानकोट घटना के दौरान। कहा जा सकता है कि उस समय साम्प्रदायिक और सियासी तौर पर चीजें बटी हुई थी।
बीते 10-11 बरसों में जम्मू कश्मीर को लेकर राजनीत का जो ताना – बाना बुना गया उसको भुला दिया गया और एक हादसे ने देश के भीतर की सियासत और राजनीति को एक ही झटके में सतह पर लाकर खड़ा कर दिया है। पहलगाम हमले को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रतिक्रिया बिहार की एक रैली में, जो कि आवास की चाबी सौंपने के लिए आयोजित की गई थी, अपनी सियासत के मद्देनजर सुनाई देती है मगर मोदी के मुखारविंद से पाकिस्तान का पा भी नहीं सुनाई दिया और वहीं दिल्ली में गृहमंत्री शाह ने खुलेआम पाकिस्तान का ताना बाना बुना। तो क्या ये सियासत का एक नया खेल है। देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से बड़ी हरकत में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और गृहमंत्री अमित शाह हैं। दिल्ली में जो सर्वदलीय बैठ हुई उससे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नदारत रहे।
भारत के भीतर पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के पहले जितनी भी आतंकवादी घटनाएं घटी उसमें एक तरफ मुस्लिम और दूसरी तरफ सियासत साफ नजर आती थी लेकिन पहली बार है जब मुस्लिम समुदाय के भीतर से खुल्लम-खुल्ला आवाज सुनाई दी कि इस तरीके के आतंकवाद को हम न तो पनाह दे सकते हैं न ही उसके साथ खड़े हो सकते हैं। दिल्ली की जामा मस्जिद से लेकर देश के कोने-कोने में जहां कहीं भी मुस्लिमों की मौजूदगी है हर उस जगह पर खुलकर विरोध प्रदर्शन करते हुए कहा गया कि इस तरह की हिंसा किसी भी कीमत पर बर्दास्त नहीं की जायेगी। पहलगाम में हुई मौतों का एक सच यह भी है कि मृतकों में एक व्यक्ति कश्मीर के मुसलमान परिवार का है तो दूसरा व्यक्ति केरल के ईसाई परिवार का है। मीडिया ने जिस तरह की रिपोर्टिंग की उससे सवाल उठता है कि जो आतंकवादी चाहते थे क्या भारत का नेशनल मीडिया भी उसी तर्ज पर देख रहा है क्योंकि अगर पहचान पूछकर, धर्म पूछकर मारा गया है तो क्या देश के भीतर का स्ट्रीम मीडिया भी उसी पहचान के आसरे खबरों को दिखाने – बताने लगेगा, खासकर उन खबरों को जो आतंकवाद से जुड़े हुए हैं या फिर उसके इर्द गिर्द ताना बाना बुनते हैं । तो क्या मीडिया की जिम्मेदारी यह नहीं है कि वह खबरों को इस तरह से पेश करे जिससे ऐसा न लगे कि वह देश के भीतर आतंकवादी सोच को आगे पनपा व बढ़ा रहा है तथा लगने लगे कि समाज हिन्दू – मुस्लिम में बंटा हुआ है।
दिल्ली ने पूरी ताकत लगाकर यही चाहा कि जम्मू-कश्मीर भारत का न केवल अभिन्न बने बल्कि वहां की संस्कृति, समाज और लोगों की आवाजाही भी जुड़ती चली जाय। यह हुआ – नहीं हुआ लेकिन इसके होने और नहीं होने के बीच में पहलगाम हो गया। एक मंत्री किरण रिजीजू कह रहे हैं कि सब कुछ अच्छा चलते हुए भी ये घटना एक चूक से हो गई जिससे सब दुखी हैं और ऐसी घटना आगे नहीं होनी चाहिए, इसके लिए प्रबंधन किया जायेगा। वहीं दूसरे मंत्री पीयूष गोयल कह रहे हैं कि जब तक 140 करोड़ भारतवासी देशभक्त और राष्ट्रवाद को अपना परमधर्म नहीं मानते हैं तब तक इस प्रकार की घटनाएं देश को परेशान करती रहेंगी।
प्रधानमंत्री जी आप तो बिहार जीतने के लिए बिहार की धरती पर खड़े होकर सियासी चालें चल रहे हैं जबकि आपको तो राष्ट्र के नाम संदेश देना चाहिए था, पाकिस्तान को सीधे तौर पर चेताना चाहिए था ? जब पाकिस्तान की स्टेट पाॅलिसी में आतंकवाद शामिल हो चुका है तो भारत की भूमिका, पहल क्या होनी चाहिए ? जब जम्मू कश्मीर में तीन स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था, तीन स्तरीय सूचनाओं के आदान – प्रदान और तीन स्तरीय गवर्नेंस चलाने के तौर – तरीके तो फिर ऐसी चूक कैसे हो गई जिसमें आतंकवादी इत्मीनान के साथ 26 सैलानियों को मौत देकर चले गए। यह चूक नहीं यह तो सीधे-सीधे सेंट्रल गवर्नमेंट का फेलुअर है इसका जिम्मेदार कौन है ? यहां आतंकवादी पहुंचे कैसे ? उपराज्यपाल का सूचना तंत्र फेल क्यों हो गया ? घटना स्थल पर सुरक्षा कर्मियों की गैरमौजूदगी क्यों थी ? अलग – अलग जगहों से चुनकर आये विधायकों की भूमिका क्या थी ? जिस अमेरिका के साथ प्रधानमंत्री मोदी हमेशा साथ खड़े होने का दावा और वादा करते रहते हैं और उसी अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प (मोदी के यार) ने ये क्यों कहा कि हम जितनी नजदीकी से भारत को जानते हैं उतनी ही नजदीकी से पाकिस्तान को भी जानते हैं, दोनों देश परिस्थितियों को समझें और संयम से रहें ? अगर पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ तो चाइना और रशिया की भूमिका क्या होगी, वे किस पक्ष में खड़े होंगे ? सिंधु नदी जल संकट को लेकर पाकिस्तान चीन के दरवाजे पर दस्तक दे रहा है कि आप भारत में ब्रह्मपुत्र नदी के जल को रोक दीजिए, अगर दोनों तरफ से ऐसा हुआ तो अन्तरराष्ट्रीय रिएक्शन कैसा होगा ? मंत्री किरण रिजीजू ने माना कि चूक हुई है तो चूक का जिम्मेदार कौन है ? उस पर क्या कार्रवाई की गई ? मंत्री पीयूष गोयल का यह कहना कि 140 करोड़ भारतीय एक सरीखा नेशनलिज्म मानें नहीं तो ऐसी घटनाएं होती रहेंगी, यह तो मंत्री (आपकी) के निम्नस्तरीय सोच की पराकाष्ठा है। देश के भीतर तो विभिन्न धर्मावलंबियों, भाषाभाषियों, समुदायों, जातियों में बटे हुए लोग रहते हैं क्या उनमें से एक भी बंदा ऐसा मिला जिसने कहा हो कि वह आतंकवादियों का साथ देगा ? देश के सवाल पर तो सभी एक हैं, पहले भी हमले हुए हैं। पहलगाम कोई पहली घटना नहीं है देश ने कई भीषण युद्ध झेले हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल (1999) में कारगिल युद्ध, श्रीमती इंदिरा गांधी के शासनकाल (1971) में पाकिस्तान के दो टुकड़े कर बांग्लादेश का निर्माण, लाल बहादुर शास्त्री के शासनकाल (1965) में भारत-पाकिस्तान युद्ध जिसमें जय जवान – जय किसान का नारा गूंजा था, पंडित जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल (1962) में भारत-चीन युद्ध में पूरा जनमानस अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार था। तो आपकी (पीयूष गोयल) एक सोच का क्या मतलब है क्या सभी 140 करोड़ लोग भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर लें, सभी 140 करोड़ देशवासी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बन जायें? भारत की राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय भावना, सम्प्रभुता को लेकर आप (पीयूष गोयल) ऐसा कैसे कह सकते हैं ? इसका सीधा सा अर्थ तो यही है कि आप की गवर्नेंस फेल है ? जिस टैक्स पेयर के पैसे से सरकार चलती है, प्रधानमंत्री ऐशो आराम करते हैं, मंत्री संतरी तफरी करते हैं वही टैक्स पेयर यतीम बना दिया गया है आखिर क्यों ? राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और गृहमंत्री अमित शाह एक साथ बैठकर पहलगाम हमले पर रणनीतिक बातचीत क्यों नहीं कर सकते हैं क्या ?
ये वो सवाल हैं जिन्हें राष्ट्रीय मीडिया को प्रधानमंत्री, मंत्रियों – संतरियों से पूछना चाहिए था। मगर इन सवालों के साथ लोकतंत्र का वह हिस्सा (मीडिया) गायब हो गया है जिसका काम ही है सत्ता से सवाल पूछना। मगर यहां तो सत्ता ही मीडिया को हांक रही है। लगता तो यही है कि अब के दौर में मीडिया की कोई साख बची नहीं है। वह तो सत्ता सरकार से सवाल करने के बजाय सत्तानुकूल मनगढ़ंत खबरें परोसने में लगा हुआ है। मौजूदा वक्त में राजनीतिक सवाल और राजनीतिक विकल्प गायब से हो गये हैं। प्रतीतात्मक रूप से विरोध प्रदर्शन करना ही भारत की राजनीति में विपक्ष की राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। आतंकवादी घटना के बाद मीडिया की भूमिका क्या होनी चाहिए और खास तौर पर तब जब आतंकवादी पहचान और धर्म जानकर हत्याएं कर रहे हैं तो ऐसे मौके पर राष्ट्रवाद का मतलब क्या होना चाहिए। लगता तो यही है कि नेशनल मीडिया इस बात को वह या तो भूल गया है या फिर जानबूझकर भूलने का दिखावा कर रहा है।
मोदी सरकार ने जिस तरह से राष्ट्रीयता की परिभाषा गढकर खुद को पेश किया उसी आसरे तेलंगाना के सीएम रेवंत रेड्डी खुलेआम कह रहे हैं कि जाइए पाकिस्तान पर हमला कर उसके टुकडे – टुकडे कर दीजिए हम आपके साथ खड़े हुए हैं। मुम्बई में हुए हमले के बाद हुई रिपोर्टिंग, चूक की एक – एक चीज स्क्रीन पर रेंग रही थी। सरकार और सरकारी नुमाइंदों को निशाने पर लिया गया था मगर इस दौर में नेशनल मीडिया के भीतर मरघट सी खामोशी छाई हुई है क्योंकि मीडिया तो सत्ता के भोंपू में तब्दील हो गया है। सत्ता की कुंजी देखकर अगर मीडिया अपनी राष्ट्रीय भावना और सम्प्रभु सोच को तय कर रहा है और विपक्ष अपनी टीका-टिप्पणी से अपनी राजनीति को दरकिनार करके ठहाके लगाते हुए कह रहा है कि जाइए जो कह रहे हैं उसको करके तो दिखाइए इससे ज्याद बुरी स्थिति दूसरी हो नहीं सकती है। शायद इसीलिए इस बात का बहुत महत्व है कि जब राजनीति कुंद पड़ जाय, सत्ता और सियासत उग्र हो जाए तब मीडिया के सवाल और संविधान तले सुप्रीम कोर्ट की भूमिका बहुत मायने रखती है। इसलिए जागते और जगाते रहिए अन्यथा ऐसी घटनाएं देश को ज्यादा बोझिल और कुंद कर देंगी। भारत निद्रा में समाता हुआ देश दिखाई देगा और बीच – बीच में सत्ता की हुंकार तो आयेगी मगर वह भी मीडिया के भोंपू तले दम तोड़ती हुई। और कुछ भी ना बचे ऐसी स्थिति ना आने दीजिए।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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