खरी-अखरी: भारत को एक बार फिर से आधुनिक सोच वाले नेहरू की जरूरत है
एक तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत पर टेरिफ लगाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बीपी अप-डाउन करने में लगे हुए हैं तो दूसरी तरफ से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने 75 साल की ओढ़नी ओढ़ाते हुए संकेतों में यह कह कर दिन का चैन – रात की नींद हराम कर दी गद्दी छोड़ दो नहीं तो लोग मरने के बाद भी पत्थर मार कर कन्फर्म करेंगे कि सच में मर गये कि नहीं । वहीं तीसरी तरफ से सीडीएस ने यह कह कर धड़कनें बढ़ा दीं कि देश की सेना कल के हथियारों से जंग लड़ेगी तो जीत नहीं पायेगी और रही सही कसर नाटों देशों के जनरल सेक्रेटरी ने 50 दिनों की समय सीमा तय करते हुए यह अल्टीमेटम दे दिया कि अगर आप रूस को युद्ध के मैदान से बाहर नहीं निकाल पाते तो फिर हम आप पर सेक्रेंडरी प्रतिबंध लगा देंगे। ऐसे हालात आजादी के बाद और मोदी के ही 11 सालाना प्रधानमंत्रित्व काल में कभी आया नहीं है। यानी मोदी के 11 साल के कार्यकाल में पहली बार ऐसी परिस्थिति आई है जब देश के भीतर और देश के बाहर चौतरफा नरेन्द्र मोदी को घेर कर चारों खूंट वार किया जा रहा है। वैसे भी पिछले 11 सालों में देश की कूटनीति और देश की विदेश नीति साल दर साल फेल होते चली गई है। जिसे पूरी दुनिया ने पहलगाम में हुए नरसंहार के बाद चलाये गए आपरेशन सिंदूर और उसके बाद दुनिया भर के चुनिंदा देशों में भेजे गए डेलीगेशन के दौरान देखा जब एक भी देश भारत के साथ खड़ा नहीं हुआ।
सीडीएस का साफतौर पर कहना है कि अब जो जंग होगी और हमारे पास तो वही कल वाले हथियार हैं और उनसे ही हमें जंग लड़नी पड़ेगी तो हम जंग नहीं जीत पायेंगे। सीडीएस का यह बयान डिफेंस के भीतर के खोखलेपन की तस्वीर उजागर करने के लिए पर्याप्त है। यानी मजबून बहुत साफ है कि विदेशों से इंपोर्ट की गई टेक्नोलॉजी पर निर्भरता हमारी युद्ध तैयारियों को कमजोर करती है मतलब हमें आत्मनिर्भर होना पड़ेगा। आपरेशन सिंदूर ने ये सीख तो दे ही दी है कि हमारे लिए ब्रह्मोस जैसे स्वदेशी सिस्टम क्यों जरूरी है। इसके बावजूद भी हम डिफेंस क्षेत्र के लिए फ्रांस से जहाज खरीद रहे हैं। उस जहाज की उपयोगिता कितनी ओर किस रूप में रही ये पूरी दुनिया ने देखा है। यह अलग बात है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार उस पर मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। अब तो हथियार विक्रेता देश अमेरिका खुलेआम कह रहा है की खरीददारी हमसे और केवल हमसे करो, रशिया और अन्य देशों से नहीं करो। इसीलिए सीडीएस कह रहे हैं कि विदेशी तकनीकी पर निर्भरता हमारी तैयारियों को कमजोर कर देती है, हमारी उत्पादन बढ़ाने की क्षमता को कमजोर कर देती है। इसलिए विदेशी निर्भरता के बजाय हमें स्वावलंबी और आत्मनिर्भर होना पड़ेगा।
बीते 11 बरस का सच यह भी है कि इस दौर में भारत की आर्थिक नीतियां कार्पोरेट्स के कांधे पर सवार हो गई है या यूं कहें कि कार्पोरेट्स ही देश की इकोनॉमी पाॅलिसी तय करने लगे हैं। देखा गया है कि अंतरराष्ट्रीय तौर पर प्रधानमंत्री की हर यात्रा में कार्पोरेट्स मित्रों के लिए रास्ता बनाया गया है। बीते 11 बरस में देश के भीतर चलने वाले पब्लिक सेक्टर को बड़ी तादाद में पहले डिसइंवेस्टमेंट के नाम पर तथा उसके बाद प्राइवेटाइजेशन और मोनोलाइजेशन के नाम पर निजी हाथों में सौंप दिया गया है। यानी सरकार ने देश की उस अर्थव्यवस्था से पूरे तरीके से पल्ला झाड़ लिया है जो सभी के वेलफेयर तहत सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वह देश के नागरिकों की आर्थिक परिस्थितियों के मद्देनजर ही प्रोडक्शन करे, सामान बेचे, लोगों को नौकरियां दे, और देश के भीतर मैनीफैक्चरिंग सेक्टर के जरिए उसकी पूर्ति करे लेकिन मोदी सरकार बीते 11 बरसों में सब कुछ उस प्राईवेट सेक्टर के हाथों में सौंपती चली गई जो सिर्फ और सिर्फ अपना मुनाफा देखते हैं, कार्पोरेट्स अपना मुनाफा देखता है। पब्लिक सेक्टर्स को किस तरीके से निजी हाथों में सौंपना है इसका प्रावधान बकायदा बजट में किया जाता रहा है। स्थिति तो यहां तक आ पहुंची कि बैंकों तक को निजी हाथों में सौंपा जाने लगा है।
टेरिफ को लेकर अमेरिका द्वारा दी गई चेतावनी के बाद अब नाटो देशों ने जनरल सेक्रेटरी के मार्फत भारत, ब्राजील और चाइना को चेतावनी भरे लहजे में कहा है कि 50 दिनों के भीतर रूस को युद्ध के मैदान से बाहर कीजिए (यूक्रेन से चल रही जंग के मद्देनजर) अन्यथा हम आप पर सेकेंडरी प्रतिबंध लगा देंगे। सेकेंडरी प्रतिबंध का आशय ये है कि अगर आप या आपके देश की कोई भी कंपनी (चाहे वह पब्लिक सेक्टर की कंपनी हो या प्राइवेट सेक्टर की कंपनी हो) रशिया के साथ व्यापार करती है तो उस पर टेरिफ बढ़ा दिया जायेगा। उसे अमेरिकी बैंकिंग सिस्टम से बाहर कर दिया जाएगा। उस पर जुर्माना लगाया जाएगा। यहां तक कि व्यापार भी रोक दिया जाएगा। तो फिर भारत सरकार और कार्पोरेटस के सामने मुश्किल तो है। सवाल यह है कि क्या कार्पोरेटस अपना व्यापार बचाये और बनाये रखने के लिए भारत सरकार से पल्ला झाड़ लेंगे क्योंकि तकरीबन सभी टाप मोस्ट कार्पोरेटस के व्यापारिक संबंध अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका के रास्ते ही निकले हैं। भारत सरकार की भी निर्भरता मोदी काल में अमेरिका पर बढ़ती चली गई है। भारत के रईसों के व्यापारिक रिश्ते चीन और रूस से उस तरह से नहीं जुड़े हैं जैसे उन्होंने बीते 11बरस में अमेरिकी रास्ते चलकर पश्चिमी देशों के साथ बनाये हैं। इसीलिए भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर अमेरिका का नाम लिये बिना कह रहे हैं कि वो हम पर प्रतिबंध लगा देंगे। जबकि हम तो अपनी सहूलियत के हिसाब से तेल खरीदते हैं।
यहां यह समझने की जरूरत भी है कि दुनिया के भीतर नाटो देशों की तादाद इतनी बड़ी है और वो रशिया के खिलाफ खड़े हुए हैं तो फिर क्या करेंगी रशिया के साथ भी थोड़े बहुत व्यापारिक रिश्ते रखने वाली भारतीय पब्लिक और प्राइवेट सेक्टर की कंपनियां ? सवाल केवल अमेरिका भर का नहीं है नाटो देशों में ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, फ्रांस, स्पेन, पोलैड जैसे देशों के अलावा ऐसे देश भी जुड़े हुए हैं जिन्होने विश्व शांति के लिए नाटो देशों के साथ पार्टनरशिप की हुई है। और अगर नाटो देश प्रतिबंध लगा देते हैं तो कल्पना कीजिए कितना बड़ा संकट पैदा हो जायेगा भारतीय कार्पोरेटस के सामने जिन्होंने अपने बिजनेस का विस्तार इन्हीं देशों के बैंकों से कर्ज लेकर इन्हीं देशों के भीतर, अन्य देशों के भीतर यहां तक कि भारत के भीतर भी किया हुआ है। नाटो जनरल सेक्रेटरी द्वारा भारत, चाइना और ब्राजील का नाम लेकर सेकेंडरी प्रतिबंध लगाने की दी गई चेतावनी का मकसद यही है कि वे रशियन राष्ट्रपति पर दबाव डालें कि वे शांति वार्ता को गंभीरता से लें। इस पर रशिया ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि वह बातचीत के तो तैयार है लेकिन आप ऐसा अल्टीमेटम मत दीजिए, आर्थिक दबाव मत बनाइये। हम अपनी नीतियों को बदलने के बजाय दूसरा वैकल्पिक व्यापारिक रास्ता तलाशना जरूर शुरू कर देंगे। वहीं अमेरिका यूक्रेन को रूस के साथ जंग जारी रखने के लिए हर अत्याधुनिक हथियारों को मुहैया करा रहा है। मतलब साफ है कि रूस और यूक्रेन का युद्ध अभी चलेगा।
नाटो जनरल सेक्रेटरी की चेतावनी से भारत और भारतीय कार्पोरेटस के माथे पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती है। भारत बहुत सारे मामलों में रशिया पर निर्भर है कम से कम तेल को लेकर तो है ही। भारत दुनिया भर के बाजार से जो 80 परसेंट कच्चे तेल की खरीदी करता है उसमें से 42% कच्चे तेल की खरीददारी रशिया से ही करता है और वह भी सस्ती दर पर, लेकिन अब उसे रूस से तेल खरीदना बंद करना होगा। भारत जो तेल खरीदता है वह भी तीन आईल कंपनियों के जरिए ही खरीदता है, उस तेल की रिफाइनिंग की पूरी प्रक्रिया अंबानी की कंपनियों के साथ जुड़ी हुई है और अंबानी की कंपनियों का रिश्ता अमेरिका और मिडिल ईस्ट देशों के साथ है। सवाल यह है कि क्या भारत प्रतिबंध से बचने के लिए रशिया से कम कीमत पर ले रहे तेल को खरीदना बंद कर ईराक और साउदी अरब से 30% ज्यादा कीमत देकर तेल खरीदेगा ? और ऐसा होता है तो देश के भीतर तेल की कीमतों में उछाल आयेगा, इकोनॉमी डगमगायेगी जिसका सीधा असर कंपनियों और बैंकों पर पड़ेगा। कुमार मंगलम बिडला का आदित्य बिडला ग्रुप हो, अंबानी की रिलायंस हो, अडानी की कंपनियों के ग्रुप्स हों सभी की सांसें फूली हुई हैं।
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर कह रहे हैं The Ukraine w’r had started immediately, within the first six hours, petrol prices went up. Now we again came to a moment of choice, we frankly came under a situation of stress. Because very powerful countries were looking at it from their perspective as people do. The problem for us was, they were customers of Russia and they had how started buying in the Gulf and the Middle East, which was our supplier so our supplier jacked up the prices. Now what do you do in this situation? You either have a clear sense of your own interest have the courage the determination to say ‘no my interests require me to do this’ or because these are very powerful, influential countries, you say. OK. If you say so, this is what we will do.
विदेश मंत्री एस जयशंकर का यह कथन बताता है कि प्रधानमंत्री या कहें भारत सरकार के सामने, कार्पोरेटस के सामने मुश्किल तो खड़ी हुई है। अभी तक जो बिजनेस दुनिया के अलग-अलग देशों में अमेरिका, नाटो देशों की सहमति से किया जा रहा है वह प्रतिबंध लगते ही एक झटके में भरभरा जायेगा। कार्पोरेटस के सामने आ रही मुश्किल हैरान, परेशान करने वाली इसलिए भी है कि क्योंकि उनके ही आंकड़े बता रहे हैं कि वे अब शेयर बाजार से मुंह मोड़ रहे हैं, गोल्ड से परहेज कर रहे हैं। उनकी नजरें अब क्रिप्टो करेंसी की तरफ हैं। क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के परिवार ने क्रिप्टो करेंसी जोड़ कर कंपनी बना ली है और उसे ट्रम्प की खुली सहमति मिली हुई है। क्रिप्टो करेंसी शेयर और गोल्ड मार्केट के मुकाबले 50 से लेकर 200 फीसदी तक ज्यादा मुनाफा देती है। लेकिन क्रिप्टो करेंसी को लेकर भारत की कोई नीति नहीं है हां उस पर 30% टैक्स जरूर लगाया गया है।
लगता तो यही है कि कार्पोरेटस, इकोनॉमी पालिसी, फारेन पालिसी के साथ ही देश की अर्थव्यवस्था को सम्हालना, लोगों को जोड़ना, आत्मनिर्भर होना इन सवालों के बीच मोदी सरकार फेल हो चुकी है। कार्पोरेटस की नजरें प्राफिट देखती हैं मगर सरकार को तो घाटा उठा कर भी देशवासियों की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करना है। कार्पोरेटस अगर सरकार का साथ छोड़ देते हैं तो मौजूदा वक्त में मोदी सरकार के पास ऐसी कोई आर्थिक नीति नहीं है जिसमें वह अपने बूते मैनेज कर पाये (कार्पोरेटस की पूंजी और अंतरराष्ट्रीय तौर पर उसके नैक्सस के बिना), क्योंकि मेक इन इंडिया का कच्चा माल चीन से आ रहा है उसकी डील भी सीधे तौर पर भारत और चाइना की सरकारों के बीच न होकर प्राइवेट सेक्टर के बीच में है। क्या मोदी सरकार में इतना माद्दा है कि वह प्राइवेट सेक्टर की जगह फिर से पब्लिक सेक्टर के आसरे देश के हर सेक्टर को आत्मनिर्भर बना सके। या फिर ये इतना बड़ा ट्रांजेक्शन पीरियड है जिससे एक झटके में सरकार डहडहा कर गिर जायेगी और इसका अंदेशा कार्पोरेटस को भी है और उसी अंदेशे से सरसंघचालक को भी अवगत करा दिया गया है तथा बीजेपी के भीतर से भी कार्पोरेटस के करीबियों के बीच से सुनाई देने लगी है। शायद यही कारण है कि कार्पोरेटस ज्यादा से ज्यादा पूंजी दुनिया के दूसरे देशों में लगा रहे हैं। कार्पोरेटस घरानों ने भारत के बैंकों के मुकाबले 52% अधिक कर्जा दुनिया के विकसित देशों के बैंकों से लिया हुआ है।
डिफेंस से जुड़े हुए जिस सवाल को सीडीएस ने उठाया है कि हमें विदेशी टेक्नोलॉजी के बजाय अपनी देशी टेक्नोलॉजी पर आत्मनिर्भरता बढ़ानी होगी इसके बावजूद भी रूस, अमेरिका, फ्रांस से हथियार खरीदे जा रहे हैं। आपरेशन सिंदूर के दौरान विदेशी हथियारों पर दुनिया भर में उठते हुए सवालों पर सीडीएस को जवाब देना पड़ा हालांकि एनएसए ने उसे काउंटर करने की कोशिश की लेकिन सीडीएस ने खुले तौर पर बताया कि विमान क्यों फेल हो गये, हमारी स्थिति क्यों गडबड हुई। डिप्टी ने भी बताया कि चीन ने किस तरीके से पाकिस्तान के लिए सब कुछ किया और उसी चीन की आर्थिक परिस्थितियों से भारत की अर्थव्यवस्था जुड़ गई है। तो क्या वाकई मोदी की अर्थ नीति और विदेश नीति ने देश को इस तरह से उलझा दिया है जहां सवाल कार्पोरेटस के भीतर भी है, संघ – सरसंघचालक के बीच भी है और बीजेपी के उन ताकतवरों के भीतर भी खड़ा हो गया है कि ये रास्ता तो अंधेरी सुरंग में जाने का है। भारत के सामने वाकई ऐसी चुनौती पूर्ण परिस्थिति आकर खड़ी हो गई है जहां पर सत्ता मौजूदा समय में कार्पोरेट को देखे या देश को खड़ा करे। वेलफेयर स्कीम के जरिए डायरेक्ट बैंक ट्रांसफर करे या हाथों में रोजगार दे। देश को एकबार फिर उस नेहरू की जरूरत है जिसने आजादी के बाद देश में बड़ी-बड़ी इंडस्ट्री, बड़े-बड़े बांध बनाये थे। और शायद इसीलिए सरसंघचालक मोहन भागवत ने जिंदगी के 75 बरस पूरा करने के बाद गद्दी दूसरे को सौंप कर मार्गदर्शक मंडल में शामिल होने का नैतिकता पूर्ण मशविरा दिया है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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