क्या हम ऐसा भारत चाहते हैं, जहां ईमानदारी उपहास का विषय हो !
देश में एक चिंताजनक प्रवृत्ति तेजी से उभर रही है — सरकारी अधिकारी रिश्वत लेते हुए बार-बार पकड़े जा रहे हैं, और फिर भी न तो उन्हें सख्त सजा मिलती है, न ही ऐसी घटनाओं से कोई व्यापक बदलाव आता दिख रहा है। ऐसा लगता है कि जैसे कानून का भय अब अधिकारियों के मन से मिटता जा रहा है, या उन्होंने किसी तरह से सिस्टम को चकमा देने की कला सीख ली है।
बीते कुछ वर्षों में भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आए, जहां अधिकारियों के घरों से करोड़ों रुपये नकद, सोना और बेहिसाब संपत्ति बरामद हुई। बावजूद इसके, ये मामले या तो लंबी जांच प्रक्रिया में उलझ कर रह जाते हैं या फिर राजनीतिक दबावों और सिस्टम की उदासीनता के चलते ठंडे बस्ते में चले जाते हैं। नतीजा यह हुआ है कि अब अधिकारियों में न केवल डर खत्म हो चुका है, बल्कि कुछ तो इसे ‘साहसिक काम’ मानकर घमंड से भरी टिप्पणियां भी करने लगे हैं।
अंदरखाने यह चर्चा आम होती जा रही है कि निलंबन अब “अच्छे काम की निशानी” बन चुका है। यह सोच न सिर्फ लोकतंत्र और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है, बल्कि यह एक पूरे समाज में गलत संकेत भी भेज रही है। आम जनता जब यह देखती है कि पकड़े जाने के बावजूद अधिकारी बच जाते हैं, तो उसका सरकारी तंत्र से विश्वास डगमगाने लगता है।
आज भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां तकनीक, विकास और आर्थिक सुधारों के साथ-साथ हमें अपने प्रशासनिक मूल्यों की भी रक्षा करनी है। अगर कानून के पालन कराने वाले ही कानून को तोड़ने लगें, तो लोकतंत्र का आधार ही कमजोर हो जाता है।
यह सवाल अब केवल व्यवस्था पर नहीं, बल्कि हमारे भविष्य की दिशा पर भी उठता है — क्या हम ऐसा भारत चाहते हैं, जहां ईमानदारी उपहास का विषय बन जाए और भ्रष्टाचार एक सामान्य स्वीकृत व्यवहार?
सरकार को चाहिए कि वह केवल जांच एजेंसियों के भरोसे न बैठे, बल्कि पारदर्शिता, जवाबदेही और त्वरित न्याय की ठोस प्रणाली विकसित करे। साथ ही, जनता को भी अब सजग होकर ऐसे भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज बुलंद करनी चाहिए। अगर हम आज नहीं जागे, तो आने वाला कल शायद और अधिक अंधकारमय होगा।
रितेश माहेश्वरी
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