भारत में दुर्लभ बीमारी की दवा की कीमत 6 लाख रुपये क्यों ?
दूसरे अन्य देशों में यही दवा भारत से 7 गुना सस्ती
नई दिल्ली केशव माहेश्वरी
देश में दुर्लभ बीमारियों के इलाज की चुनौतियों पर एक बार फिर गंभीर बहस छिड़ गई है। इंडियन एक्सप्रेस की हालिया रिपोर्ट ने एक चौंकाने वाला खुलासा किया है—स्विट्जरलैंड की बहुराष्ट्रीय कंपनी रोशे (Roche) द्वारा निर्मित दवा ‘रिस्डिप्लम’ की एक बोतल की कीमत भारत में 6 लाख रुपये है। यह दवा स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी (SMA) नाम की दुर्लभ बीमारी के इलाज में इस्तेमाल होती है।
रिपोर्ट के अनुसार, केरल की एक युवती इस बीमारी से पीड़ित है और उसे हर महीने इस दवा की तीन बोतलों की जरूरत होती है। यानी केवल एक महीने की दवा पर खर्च 18 लाख रुपये बैठता है। दो साल पहले युवती ने केरल हाईकोर्ट में याचिका दायर कर केंद्र सरकार से मांग की थी कि वह भारतीय पेटेंट अधिनियम, 1970 की धारा 84 के तहत अनिवार्य लाइसेंसिंग (Compulsory Licensing) का इस्तेमाल करे। इस प्रावधान के तहत सरकार किसी दूसरी कंपनी को अधिक सस्ती जेनेरिक दवा बनाने की अनुमति दे सकती है।
इस मुद्दे में एक भारतीय फार्मा कंपनी नैटको फार्मा ने भी दिलचस्पी दिखाई है। कंपनी का कहना है कि अगर उसे रिस्डिप्लम का जेनेरिक वर्जन बनाने की इजाजत मिलती है, तो वह इसे सिर्फ 15,900 रुपये में उपलब्ध करा सकती है—जो मौजूदा मूल्य का महज एक छोटा हिस्सा है।

अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर उठे सवाल
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में एक और बड़ा सवाल उठाया गया है—चीन और पाकिस्तान जैसे देशों में यही दवा कंपनी द्वारा 42,000 रुपये प्रति बोतल के मूल्य पर उपलब्ध कराई जा रही है। यानी भारत की तुलना में लगभग 7 गुना सस्ती। रिपोर्ट के अनुसार, इन देशों ने कंपनी से सरकारी स्तर पर मोलभाव कर कीमतें कम करवाईं। सवाल यह उठता है कि भारत सरकार क्यों ऐसा नहीं कर पाई, जबकि देश में पेटेंट कानून में दी गई शक्तियां और सार्वजनिक हित में हस्तक्षेप का स्पष्ट अधिकार मौजूद है?
क्या कहता है कानून?
भारत का पेटेंट कानून सरकार को यह अधिकार देता है कि वह आवश्यक होने पर किसी भी दवा के लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी कर सकती है—विशेषकर जब कोई दवा आम जनता की पहुंच से बाहर हो जाए या जीवनरक्षक हो। इस मामले में, सरकार की निष्क्रियता कई सवाल खड़े करती है।
भारत में हर साल सैकड़ों बच्चे दुर्लभ बीमारियों के कारण उचित इलाज न मिलने से दम तोड़ देते हैं। सवाल यह है कि जब तकनीकी और कानूनी दोनों रास्ते मौजूद हैं, तो क्या दवा कंपनियों के हित आम जनता की जिंदगी से ऊपर हैं?
सरकार को अब गंभीर निर्णय लेने की जरूरत है—या तो मोलभाव करके दवाओं की कीमतें कम कराए, या फिर पेटेंट कानून के तहत हस्तक्षेप कर सस्ती जेनेरिक दवाओं को रास्ता दे।
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