खरी-अखरी: एक शिगूफे से ज्यादा नहीं है 75 बरस की ओढ़नी
एक शिगूफे से ज्यादा नहीं है 75 बरस की ओढ़नी
बीते 11 बरसों में देश के भीतर जितना परिवर्तन हुआ है वह परिवर्तन न तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आगे बढ़ने का रास्ता तय करता है न ही भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक तौर पर जीत दिला सकता है तो सत्ता में बने रहना भारतीय जनता पार्टी के जितना जरूरी है उससे कहीं ज्यादा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जरूरत है। यानी आरएसएस और सरसंघचालक मोहन भागवत बीजेपी और नरेन्द्र मोदी को लेकर चाहे कितनी भी उल्टी सीधी बात करें लेकिन इतना तय है कि वह ऐसा कोई राजनीतिक प्रयोग बिल्कुल भी नहीं करेगें जहां उन्हें यह लगने लगे कि सत्ता उसके हाथ से यानी बीजेपी के हाथ से निकल जायेगी। बीजेपी को सत्ता में बनाये रखने के लिए ही देश के संवैधानिक संस्थाओं को पूरी तरह से खोखला किया गया। भले ही आर्थिक तौर पर देश की इकोनॉमी डगमगा गई, सामाजिक तौर पर टकराव की स्थितियां पैदा हुईं, नैतिकता और बौद्धिकता का खुलकर पतन हुआ। साम्प्रदायिकता का जुनून राजनीतिक रूप से बीजेपी को लाभ पहुंचाता रहे इसके लिए कानून तक को उन रास्तों से हटाया गया जिसने खुलकर नैतिक संवेदनहीनता का इजहार किया। देश की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैदेशिक नीतियों के आसरे कहा जा सकता है कि देश बीजेपी और आरएसएस के दो पहियों के बीच फंस चुका है। एक तरफ संघ ने जो चाहा बीजेपी यानी मोदी ने पूरा किया दूसरी तरफ मोदी ने सत्ता में बने रहने के लिए जो किया वो आरएसएस को अपने अनुकूल नहीं लगा लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं है कि सरसंघचालक मोहन भागवत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कह रहे हैं कि आप गद्दी छोड़ दीजिए। यह सारी कवायद उस विकल्प को तलाशने के लिए हो रही है जो 11 बरसों में सब कुछ खत्म हो चला है उन्हें फिर से पाया जा सके। नरेन्द्र मोदी ने अपने 11 बरसों के शुरुआत में ही कहा था कि हावर्ड नहीं हार्ड वर्क यानी विज्ञान नहीं श्रम यानी देश के भीतर की बौद्धिकता नहीं एक तरीके की भीड़ चाहिए। ये सारी परिस्थितियां धीरे – धीरे मोदी सरकार के कैबिनेट में भी समाती चली गई जहां पर सिर्फ और सिर्फ यसमैन की मौजूदगी रहे। मतलब जो यस कहेगा वही साथ रहेगा। इस यस मैन की धमक पीएमओ के राजनीतिक गलियारों से होती हुई संघ कार्यालय नागपुर तक पहुंचने लगी है।
नरेन्द्र मोदी के ग्यारह वर्षीय शासनकाल में कालेधन के खिलाफ जारी की गई नोटबंदी में सारा काला धन तो सिस्टम में ही समा गया, उद्योग तबाह हो गये, 15 लाख से ज्यादा नौकरियां नौ दो ग्यारह हो गईं, जीडीपी 2 परसेंट नीचे आ गई, असंगठित क्षेत्र की कमर टूट गई, रोजगार गायब हो गये, लोगों की आमदनी कम हो गई, 2013 के मैनीफैस्टो में दो करोड़ रोजगार देने का वादा छलावा साबित हुआ, असमानता और बेरोजगारी ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए, असंगठित क्षेत्र में अलग अलग जगहों पर काम करने वालों की तादाद 52 फीसदी से घट कर 40 फीसदी पर आ गई, इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र से लगभग 24 करोड़ नौकरियां गायब हो गईं, 11 सालों में सिर्फ 7 लाख 20 हजार नौकरियां ही मिलीं, बीजेपी को तो बनियों की पार्टी कहा जाता है, वह तबका बीजेपी को वोट और नोट दोनों देता है जीएसटी ने उसकी भी कमर तोड़ कर रख दी, व्यापारी जीएसटी के चक्रव्यूह में फंसता चला गया, भृष्टाचार की बाढ़ आनी शुरू हो गई, देश का फेडरल सिस्टम डगमगाने लगा, राज्यों को जीएसटी का हिस्सा देने के बजाय उन्हें रिजर्व बैंक से जितना चाहो उतना लोन लेने के लिए कहा जाने लगा, जनता के ऊपर कर्ज का बोझ 67 फीसदी से बढ़कर 84 फीसदी हो गया, पब्लिक सेक्टर डगमगाने लगा, प्रोडक्शन गायब हो गया, पारदर्शिता गायब हो गई, डाॅलर 58 रुपये से बढ़कर 87 रूपये के पार पहुंच गया, व्यापार घाटा दुगुना हो गया, मेक इन इंडिया के लिए कच्चे माल की निर्भरता दुश्मन कहे जाने वाले चीन पर टिक गई, राजनीतिक लाभ के लिए वेलफेयर प्रोग्राम बनाये जाने लगे, किसान सम्मान निधि पाने वाले किसानों की संख्या 11.5 करोड़ से घटकर 8.5 करोड़ पर आ गई, मनरेगा में मजदूरों की तुलना में मजदूरी नहीं बढ़ी बल्कि बजट साल दर साल कम होता चला गया, मनरेगा में काम के दिन 100 से घटकर 37 कर दिए गए, पीएम आवास का सरकारी आंकड़ा बताता है कि 1 करोड़ 60 लाख घर अभी भी नहीं बने हैं जबकि उन्हें कागजों में आवंटित बता दिया गया है, कोविड के दौरान लोगों की मौत दवाइयों के अभाव में हो गई मगर दवाई बनाने वाली कंपनियां मालामाल हो गई और उन माल काटने वाली कंपनियों की जेबें चुनावी चंदा के जरिए काट ली गई। तमाम कार्पोरेटस् को ब्लैक मेल कर व्हाइट मेल कर दिया गया, डवलपमेंट कागजों में सिमिट कर रह गया। आपदा में अवसर का इससे बड़ा उदाहरण दुनिया में कोई दूसरा नहीं मिलेगा जैसा भारत में देखने को मिला जिसे पीएम केयर फंड के नाम से जाना जाता है। जिसकी आज तक न कोई दस्तावेजी जांच हुई न ही कोई पब्लिक आडिट हुआ और 10 हजार करोड़ रुपये उसमें समा गए जो आज की तारीख में 15-16 हजार करोड़ का आंकड़ा पार कर चुका होगा। दलितों पर 25 परसेंट अत्याचार बढ़ गया, बुलडोज़र, हिजाब, नागरिकता संशोधन अधिनियम के जरिए अल्पसंख्यकों को निशाने पर लिया गया। इसी दौर में दिल्ली में दंगे भी हुए। यह मैसेज दिया गया कि हिन्दूवादी ही बहुसंख्यकवादी हैं और यही देश की पहचान होनी चाहिए। इस मैसेज को जिस तरीके से लांच किया गया उसने एक झटके में आरएसएस के भीतर पल रहे सावरकरवाद को सामने लाकर खड़ा कर दिया । सब कुछ आंखों के सामने हुआ। ऐसा नहीं है कि संघ के स्वयंसेवक आंखें मूंदे हुए हैं। ऐसा भी नहीं है कि सरसंघचालक ने आंखों में पट्टी बांध रखी है। सरसंघचालक और संघ के स्वयंसेवक भी समाज में ही रहते हैं। एकबार यह मान भी लिया जाय कि इन सारी परिस्थितियों का सरसंघचालक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता होगा लेकिन यह कतई नहीं माना जा सकता है कि स्वयंसेवक और उसका परिवार इन परिस्थितियों से अछूता रह जाय। आरएसएस को पता है कि मोदी जिस रास्ते देश को ले जा रहे हैं उसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की साख को खत्म कर दिया है। जनता के बीच उसका महत्व मात्र इतना है कि उसकी पालित-पोषित राजनीतिक पार्टी की देश में सत्ता है इससे हटकर और कुछ नहीं है। इस समय 4 ट्रिलियन इकोनॉमी का ढोल पीटा जा रहा है तो संघ का स्वयंसेवक उस जनता के बीच भी रहता है जो मुफलिसी, गरीबी और अंधेरे में आज भी समाया हुआ है। प्रचार की सारी चमक-दमक जो जबरजस्त तरीके से की जा रही है वह नीतिगत नाकामियों को छुपाने के लिए ही की जा रही है।
सरसंघचालक मोहन भागवत ने उम्र के 75 वें पडाव की तस्वीर बड़े वीभत्स तरीके से यह कहते हुए पेश की कि मेरी मुश्किल यह है कि मैं खड़ा होता हूं तो लोग हंसने लगते हैं, मैंनें हंसने लायक कुछ बोला नहीं है तब भी लोग हंसते हैं क्योंकि मुझे लगता है कि लोग मुझे गंभीरता से नहीं लेते हैं। जब मैं मर जाऊंगा तब भी पहले लोग पत्थर मार कर देखेंगे कि सच में मर गया है या नहीं। 75 वर्ष आपने किया लेकिन मैं इसका अर्थ जानता हूं। 75 वर्ष की शाल जब ओढी जाती है तो उसका अर्थ ये होता है कि अब आपकी आयु हो गई है अब जरा बाजू हो जाओ, दूसरे को आने दो। इस बात का जिक्र उन्होंने संघ स्वयंसेवक मोरोपंत पिंगले के पीछे छिप कर किया । ये वही मोरोपंत पिंगले हैं जिन्होंने हेडगेवार के साथ मिलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव रखी और 1994 यानी बावरी मस्जिद विध्वंस के बाद 75 वर्ष आयु पूरी करने के बाद बतौर संघ के सक्रिय कार्यकर्ता रिटायर्मेंट ले लिया था। सरसंघचालक मोहन भागवत जो खुद 75 वर्ष की आयु पूरी करने जा रहे हैं मगर उनके कहे को 17 सितम्बर 2025 को 75 बसंत पूरे करने जा रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से जोड़ कर देखा जा रहा है कि भागवत मोदी को कह रहे हैं कि अब आप 75 साल के हो गए हैं तो आपको प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। देश के भीतर बीजेपी और मोदी को लेकर कितना भी गुस्सा हो और उस गुस्से के आसरे आरएसएस कुछ भी समझ रही हो लेकिन यह तो संभव ही नहीं है कि आरएसएस मोदी से ये कहे कि आप गद्दी छोड़ दीजिए। दरअसल में ये सारी कवायद इसलिए की जा रही है कि देश की माली हालत, देश से जुड़े हुए मुद्दे कहीं लोगों के जहन में ना आ जाएं और वे राजनीतिक तौर पर जुड़ने ना लग जाएं, तो क्यों ना नरेन्द्र मोदी को ही मुद्दा बना दिया जाय।
यानी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मुद्दा होना उन तमाम मुद्दों को ढक लेगा या फिर एक ऐसी रेडकारपेट बिछा देगा जिस पर आसानी से आरएसएस कदमताल कर सकती है और बीजेपी आगे बढ़ सकती है और आने वाले समय में कुछ नये प्रयोग किए जा सकें। सवाल अपने भीतर से अपने ही विकल्प को तलाशने और अपने ही विकल्प को आगे करने का है और 75 बरस का जिक्र तो सिर्फ एक चेताने का प्लान भर है। बीते 11 बरसों में सरसंघचालक ने दशहरा के दिन दिए जाने वाले भाषण में एक बार भी केन्द्र सरकार की किसी भी नीति को लेकर ऊंगली नहीं उठाई है। आज के दौर में चीन, रूस और अमेरिका तीनों की पसंद पाकिस्तान है। बीजेपी और आरएसएस ने अभी तक जिस राजनीति को साधा है उसकी उमर पूरी हो चुकी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का चेहरा और उस चेहरे के अलावा बीजेपी में कोई दूसरा चेहरा नहीं, उस चेहरे के आसरे संघ की विचारधारा और स्वयंसेवकों की कतार, इससे हटकर कुछ नहीं तो जब कुछ भी नहीं है तो सवाल भी खुद से यही तो सवाल करेंगे कि अगर आप इस चेहरे को हटा दीजिएगा तो फिर किस मुखौटे को लेकर आयेंगे। नरेन्द्र मोदी की देशी और अंतरराष्ट्रीय विफलताओं को लेकर संघ के भीतर इस बात को लेकर गहन चिंतन हो रहा है कि इस दौर में एक प्रतिबध्द सरकार के लिए एक ऐसी लीडरशिप की जरूरत है जो आर्थिक और कूटनीतिक तौर पर चीजों को सम्हाल सके। सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को दुबारा से जोड़ सके। लोकतांत्रिक विश्व संस्कृति में अपनी जगह बना सके। देश के शैक्षणिक संस्थानों में संघ की विचारधारा को थोपा तो गया लेकिन अंतरराष्ट्रीय तौर पर उस विचारधारा को मान्यता नहीं मिली तथा देश के भीतर भी सवाल उठते चले गए। इतिहास बदलने की दिशा में कदम बढ़ाये गये। इतिहास बदलने के फेर में मुगल इतिहास को खलनायक करार दे दिया गया। प्रेस की स्वतंत्रता खत्म होती चली गई और दुनिया के मानचित्र में भारत 161 वें पायदान पर खड़ा कर दिया गया। इस्लामिक विरासत को गिराना, नामों को बदलना शुरू कर दिया गया।
कहते हैं न बाप – बाप होता है और इसको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बखूबी साबित किया है। जनसंघ रही हो या नई बोतल में पुरानी शराब जैसी बीजेपी कभी भी अपने पितृपुरुष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ज्यादा पाॅलिटिकल नहीं हो पाई। द्वितीय सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने संघ की राजनीतिक विंग जनसंघ को लेकर कहा था कि यह तो हमारी पुंगी है जब तक बजेगी बजायेंगे और जब नहीं बजेगी तो तोड़ कर खा जायेंगे और आने वाला हर सरसंघचालक राजनीतिक विंग के बारे में यही सोच लेकर चला है। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने जब 2023 में कहा कि पार्टी खुद इतनी सक्षम हो गई है कि उसे अब संघ रूपी बैसाखी की जरूरत नहीं है तो 2024 के ही लोकसभा चुनाव में संघ ने बीजेपी को ही दो-दो बैसाखियों के सहारे पर ला दिया। देश के भीतर राजनीतिक तौर पर किन मुद्दों पर आगे बढ़ना है या किन मुद्दों को अमलीजामा पहनाना है यह आरएसएस ही बखूबी तय करती है और संघ से जुड़े हुए राजनीतिक लोग उसे पूरा करने में लग जाते हैं। यह परंपरा गुरू गोलवलकर से लेकर मोहन भागवत तक बदस्तूर जारी है। संघ के भीतर इस बात को लेकर कहीं न कहीं टीस है कि वह जिन मुद्दों को राजनीतिक तौर पर अमल करना चाहती थी उनको अटलबिहारी बाजपेई अपने प्रधानमंत्रित्व काल में पूरा नहीं कर पाये लेकिन आरएसएस के उन तमाम ऐजेंडों को नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री रहते हुए पूरा कर रहे हैं। धारा 370, अयोध्या में राम मंदिर, कामन सिविल कोड, यहां तक कि इजराइल से करीबी और नेतन्याहू से मोदी का याराना। मगर नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से देश की विदेश नीति को मोदी नीति में तब्दील किया जिससे अंतरराष्ट्रीय तौर पर कूटनीति और विदेश नीति दोनो स्तरों पर भारत की भद्द पिटती चली गई। पहलगाम में हुई आतंकवादी घटना के बाद घटे घटनाक्रम के दौरान दुनिया का एक भी देश भारत के साथ खड़ा होना तो दूर यह तक कहने नहीं आया कि भारत तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं। जिसे लगातार दूसरे संघ प्रचारक की अक्षमता के रूप में देखा जाने लगा। देशीय और विदेशीय स्तर पर संघ की साख भी धूमिल होने लग गई। इसलिए जरूरी हो गया है दूसरे वैकल्पिक जीव की खोज और उसका रास्ता 75 बरस की ओढ़नी उढ़ाने से निकलता है। और उस रास्ते की सफाई 17 सितम्बर 2025 के बाद करने के लिए ही एक सोची समझी रणनीति के तहत ही मोरोपंत पिंगले के अश्क को सामने लाया गया है !
75 बरस की उमर हो जाने के बाद भी अगर आप गद्दी नहीं छोड़ते हैं तो लोग मरने के बाद भी पत्थर मार कर देखते हैं कि मरे या नहीं मरे। वैसे मोहन भागवत ने गलत नहीं कहा है। स्थितियां नाजुक तो हैं और अगर गद्दी छूटेगी तो उसके बाद की परिस्थितियां क्या होगी। संवैधानिक संस्थाओं का खोखला होना, आर्थिक तौर पर देश के भीतर बदहाली की स्थिति, नैतिकता और बौध्दिकता का पतन, सामाजिक टकराव की परिस्थितियों का पनपना, साम्प्रदायिकता का जुनून इन सबके बीच अब लोग एक नये मोदी को चाहेंगे। इस परिस्थिति को आरएसएस भी सम्हाल नहीं पायेगी जो ये मानकर चलती रही है कि वह बीजेपी से ज्यादा पालिटिकल है। क्योंकि नैतिक संवेदनहीनता और राजनीतिक शून्यता तथा तर्कहीनता ने वाकई देश के भीतर हावर्ड को खत्म कर दिया है। हार्ड वर्क जो सड़कों पर नजर आता है और जिस अंदाज में नजर आता है उसमें देश का संविधान और संविधान के तहत कानून का राज भी राज्य दर राज्य खत्म होता हुआ नजर आता है। चिंता तो होनी ही चाहिए लेकिन उसके बाद की परिस्थिति क्या होगी डर तो संघ के भीतर भी है। इसीलिए इसे तालमेल कहा जाता है। इसे कहते हैं देश का हर मुद्दा हर कोई भूल जाये और देश के प्रधानमंत्री ही अगर मुद्दा बन जायें तो फिर क्या अच्छा और क्या बुरा चर्चा तो उन्हीं की होगी।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार
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