सरकारी स्कूल और शिक्षा व्यवस्था की सड़ांध
हरियाणा में शिक्षा सुधार के दावे जितने ऊँचे हैं, जमीनी हकीकत उतनी ही कड़वी है। पंचकूला के सरकारी स्कूल में राज्यपाल के निरीक्षण के दौरान उजागर हुई बदहाली बताती है कि समस्या किसी एक विद्यालय की नहीं, पूरे तंत्र की है। गंदे शौचालय, पानी का अभाव और जर्जर ढाँचा बच्चों के स्वास्थ्य व सम्मान पर सीधा आघात हैं। करोड़ों के बजट और योजनाओं के बावजूद बुनियादी सुविधाएँ न मिलना प्रशासनिक विफलता का प्रमाण है। यदि अब भी जवाबदेही तय नहीं हुई, तो हरियाणा का भविष्य भी इन्हीं बदहाल स्कूलों जैसा बनता जाएगा।
– डॉ. सत्यवान सौरभ
हरियाणा, जो अपने को खेल, सैनिक परंपरा और विकास के दावों के लिए जाना जाता है, वहाँ के सरकारी स्कूलों की जमीनी सच्चाई अक्सर इन दावों से उलट दिखाई देती है। पंचकूला स्थित राजकीय मॉडल संस्कृति प्राथमिक विद्यालय में राज्यपाल प्रो. असीम घोष के निरीक्षण के दौरान सामने आई तस्वीर केवल एक स्कूल की कहानी नहीं है, बल्कि यह हरियाणा की शिक्षा व्यवस्था की उस सच्चाई को उजागर करती है, जिसे वर्षों से फाइलों और आंकड़ों के पीछे छिपाया जाता रहा है। जब किसी राज्य के राज्यपाल को स्कूल के शौचालयों की दुर्गंध से नाक ढकनी पड़े, तो यह घटना केवल असहजता नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम पर लगे प्रश्नचिह्न की तरह देखी जानी चाहिए।
हरियाणा सरकार पिछले कुछ वर्षों से “मॉडल संस्कृति स्कूल”, “स्मार्ट स्कूल” और “डिजिटल क्लासरूम” जैसे शब्दों के साथ शिक्षा के आधुनिकीकरण के दावे करती रही है। बजट भाषणों में स्कूलों के लिए करोड़ों रुपये की घोषणाएँ होती हैं, नई योजनाओं के पोस्टर लगते हैं और उद्घाटन समारोहों में विकास की तस्वीर पेश की जाती है। लेकिन पंचकूला का यह विद्यालय बताता है कि काग़ज़ों पर चल रहा विकास ज़मीन पर दम तोड़ रहा है। शौचालयों में पानी नहीं, दरवाज़े टूटे हुए हैं और बुनियादी ढाँचा इस कदर जर्जर है कि कर्मचारियों को सीढ़ियों के अभाव में जुगाड़ से छत पर चढ़ना पड़ता है।
यह स्थिति एक दिन में पैदा नहीं हुई। यह वर्षों की प्रशासनिक लापरवाही, निरीक्षण तंत्र की विफलता और जवाबदेही के अभाव का परिणाम है। हरियाणा में शिक्षा विभाग की एक पूरी संरचना है—ब्लॉक शिक्षा अधिकारी, जिला शिक्षा अधिकारी, इंजीनियरिंग विंग, निरीक्षण समितियाँ और स्कूल प्रबंधन समितियाँ। सवाल यह है कि जब तक राज्यपाल नहीं आए, तब तक किसी को यह दुर्गंध क्यों नहीं आई। क्या ये सभी अधिकारी अंधे थे, या फिर उन्होंने सब कुछ देखकर भी अनदेखा करने को ही अपनी प्रशासनिक संस्कृति बना लिया है।
हरियाणा जैसे राज्य में, जहाँ ग्रामीण और शहरी शिक्षा के बीच पहले से ही गहरी खाई है, सरकारी स्कूलों की यह हालत सामाजिक असमानता को और गहरा करती है। जिन परिवारों के पास संसाधन हैं, वे अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेज देते हैं। लेकिन जिनके पास विकल्प नहीं, उनके बच्चे इन्हीं स्कूलों में पढ़ने को मजबूर हैं। ऐसे में गंदे शौचालय, टूटी इमारतें और असुरक्षित वातावरण केवल अव्यवस्था नहीं, बल्कि सामाजिक अन्याय का रूप ले लेते हैं।
शौचालयों की बदहाली को अक्सर एक मामूली समस्या समझ लिया जाता है, लेकिन वास्तव में यह शिक्षा की गुणवत्ता से सीधे जुड़ा हुआ मुद्दा है। विशेषकर हरियाणा में, जहाँ बालिकाओं की शिक्षा और ड्रॉपआउट दर पहले से ही चिंता का विषय रही है, स्वच्छ और सुरक्षित शौचालयों का अभाव लड़कियों को स्कूल से दूर करने का बड़ा कारण बनता है। बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे अभियानों की सार्थकता तब सवालों के घेरे में आ जाती है, जब स्कूलों में बेटियों के लिए बुनियादी सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं होतीं।
राज्यपाल का आक्रोश स्वाभाविक था और उन्होंने तत्काल सुधार के निर्देश भी दिए। लेकिन हरियाणा का अनुभव बताता है कि ऐसे निर्देश अक्सर तात्कालिक सफ़ाई और लीपापोती तक सीमित रह जाते हैं। कुछ दिनों तक शौचालय चमकते हैं, टूटे दरवाज़े अस्थायी रूप से ठीक कर दिए जाते हैं और फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। यदि इस मामले में भी दोषी अधिकारियों की पहचान कर उनके खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं हुई, तो यह घटना भी बाकी निरीक्षणों की तरह फाइलों में दफन हो जाएगी।
हरियाणा सरकार शिक्षा पर होने वाले खर्च को अपनी उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत करती है। लेकिन खर्च और परिणाम के बीच का अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है। सवाल उठता है कि पैसा आखिर जा कहाँ रहा है। क्या निर्माण कार्यों में घटिया सामग्री का इस्तेमाल हो रहा है, क्या ठेकेदारी व्यवस्था में भ्रष्टाचार है, या फिर निगरानी का तंत्र पूरी तरह से ढीला पड़ चुका है। जब तक इन सवालों का ईमानदारी से जवाब नहीं खोजा जाएगा, तब तक किसी भी नई योजना से वास्तविक सुधार की उम्मीद करना व्यर्थ है।
इस पूरे प्रकरण में समाज की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। हरियाणा में अभिभावक, पंचायतें और स्थानीय जनप्रतिनिधि अक्सर तब तक चुप रहते हैं, जब तक मामला मीडिया में नहीं आ जाता। स्कूल प्रबंधन समितियाँ काग़ज़ों में तो हैं, लेकिन उन्हें न तो पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं और न ही उनकी बात को गंभीरता से लिया जाता है। यदि स्थानीय समुदाय स्कूलों की निगरानी में सक्रिय भूमिका निभाए, तो ऐसी बदहाली को वर्षों तक छिपाए रखना संभव नहीं होगा।
यह भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि हरियाणा के सरकारी स्कूल केवल शिक्षा के केंद्र नहीं, बल्कि ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में बच्चों के लिए सुरक्षा, पोषण और सामाजिक समावेशन का माध्यम भी हैं। मध्याह्न भोजन योजना, स्वास्थ्य जांच और छात्रवृत्तियाँ इन्हीं स्कूलों के ज़रिये पहुँचती हैं। जब स्कूल का माहौल ही असुरक्षित और अपमानजनक हो, तो इन योजनाओं का उद्देश्य भी कमजोर पड़ जाता है।
इस घटना को हरियाणा के संदर्भ में एक चेतावनी के रूप में लिया जाना चाहिए। सुधार केवल आदेश जारी करने से नहीं होगा। ज़रूरत है कि स्कूलों के बुनियादी ढाँचे का नियमित स्वतंत्र ऑडिट कराया जाए, निर्माण और रखरखाव से जुड़े ठेकों की पारदर्शी जांच हो, और जिन अधिकारियों ने लापरवाही बरती है, उनके खिलाफ उदाहरणात्मक कार्रवाई की जाए। साथ ही, स्कूल प्रबंधन समितियों और पंचायतों को वास्तविक अधिकार देकर उन्हें जवाबदेही का हिस्सा बनाया जाए।
हरियाणा की पहचान मेहनती किसानों, सैनिकों और खिलाड़ियों की भूमि के रूप में रही है। यह राज्य तभी अपनी उस पहचान को कायम रख सकता है, जब उसकी अगली पीढ़ी को सम्मानजनक और सुरक्षित शैक्षणिक वातावरण मिले। बदबूदार शौचालय, टूटे दरवाज़े और जर्जर भवन किसी भी विकसित राज्य की पहचान नहीं हो सकते।
राज्यपाल का रूमाल इस बात का प्रतीक बन गया है कि अब स्थिति छिपाने लायक नहीं रही। यह हरियाणा सरकार, प्रशासन और समाज—तीनों के लिए आत्ममंथन का क्षण है। यदि इस घटना से सबक लेकर ठोस और स्थायी सुधार किए गए, तो यह निरीक्षण एक सकारात्मक मोड़ साबित हो सकता है। लेकिन यदि इसे भी कुछ दिनों की चर्चा के बाद भुला दिया गया, तो यह बदहाली हरियाणा के भविष्य को भी उसी तरह प्रभावित करेगी, जैसे वह आज उसके स्कूलों को कर रही है।
अंततः सवाल यही है कि क्या हरियाणा अपने बच्चों को केवल नारों और योजनाओं में “मॉडल” बनाना चाहता है, या वास्तव में उन्हें एक ऐसा स्कूल देना चाहता है, जहाँ स्वच्छता, सुरक्षा और सम्मान बुनियादी अधिकार हों। शिक्षा की असली कसौटी यही है, और इसी पर राज्य का भविष्य टिका हुआ है।
– डॉ. सत्यवान सौरभ




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