“टीका नहीं , जीवनशैली है मौत की वजह : भ्रम का बोझ और स्वास्थ्य की सच्चाई”
लोग सिर्फ महामारी से नहीं अपनी आदतों से भी मर रहे !
अगली बार जब कोई प्रियजन इसी तरीके से जान गंवाए , तो टीकाकरण नहीं उसकी जीवनशैली के बारे में भी तो सवाल पूछिए !
आईसीएमआर और एम्स की रिपोर्ट ने साफ किया है कि अचानक मौतों के पीछे कोविड वैक्सीन नहीं, बल्कि हमारी जोखिम भरी जीवनशैली है। उच्च रक्तचाप, मोटापा, तनाव, अनियमित भोजन, नींद की कमी और व्यायाम का अभाव – यही असली कारण हैं। अफवाहें फैलाना आसान है, लेकिन सच यह है कि हमारी आधुनिक आदतें हमें धीरे-धीरे मौत की ओर धकेल रही हैं। वैज्ञानिक सोच अपनाएं, जीवनशैली में बदलाव लाएं – यही असली सुरक्षा है।
प्रियंका सौरभ
भारत में अचानक हो रही मौतों को लेकर एक लंबा समय भ्रम और आरोप-प्रत्यारोप में बीता। कोविड-19 महामारी के बाद जब कुछ लोगों की मृत्यु हुई तो सबसे पहले लोगों की उंगलियाँ कोरोना वैक्सीन की ओर उठीं। सोशल मीडिया पर अफवाहों की बाढ़ आ गई – “वैक्सीन से हार्ट अटैक हो रहा है”, “टीका लेने के बाद मौतें बढ़ी हैं”, “सरकार ने साजिश की है” – ऐसे अनेक दावे तथाकथित ‘जानकारों’ और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के स्नातकों द्वारा फैलाए गए। लेकिन अब विज्ञान ने एक बार फिर अफवाहों को पछाड़ते हुए सच्चाई को सामने रख दिया है।
हाल ही में आईसीएमआर (भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद) और एम्स (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान) द्वारा किए गए अध्ययन में यह स्पष्ट किया गया है कि अचानक मौतों के पीछे कोविड-19 वैक्सीन नहीं, बल्कि जोखिम भरी जीवनशैली है। रिपोर्ट में 19 राज्यों से एकत्र किए गए डेटा का विश्लेषण किया गया। निष्कर्ष चौंकाने वाले थे, लेकिन एक साथ हमें आईना भी दिखाते हैं।
रिपोर्ट में बताया गया कि अचानक हृदयाघात, ब्रेन स्ट्रोक, और अन्य अकस्मात् मौतों के पीछे सबसे बड़े कारण हैं— उच्च रक्तचाप, मोटापा, अत्यधिक तनाव, अनियमित खान-पान, धूम्रपान और शराब की लत, शारीरिक श्रम की कमी, अत्यधिक वर्कलोड और नींद की कमी। कोरोना वैक्सीन को मौत का कारण मानना इसलिए भी वैज्ञानिक रूप से गलत है क्योंकि बड़ी संख्या में ऐसे लोग जिनकी मृत्यु हुई, उन्हें वैक्सीन लगे कई महीने बीत चुके थे और उनमें पहले से स्वास्थ्य समस्याएं मौजूद थीं।
जब महामारी चरम पर थी, तब टीकाकरण को लेकर जागरूकता और जनसहयोग से भारत ने एक बड़ी उपलब्धि हासिल की। लेकिन कुछ ही महीनों में सोशल मीडिया पर फैली अफवाहों ने इस काम को धूमिल कर दिया। अफवाह फैलाने वालों ने न सिर्फ लोगों को डरा दिया, बल्कि स्वास्थ्यकर्मियों और वैज्ञानिकों के प्रति अविश्वास भी पैदा किया। यह डर और अविश्वास केवल अज्ञानता नहीं है, बल्कि एक प्रकार की सामाजिक महामारी है जो विज्ञान की बजाय भावनाओं पर टिकी होती है। अफसोस की बात यह है कि इस अविश्वास के कारण कई लोगों ने वैक्सीन नहीं लगवाई और महामारी के खतरों को और भी गहरा किया।
हम रोज़ सुबह जागते हैं, मोबाइल देखते हैं, फिर स्क्रीन के सामने बैठ जाते हैं। ऑफिस, मीटिंग, डेडलाइन, देर रात तक जागना, जंक फूड, मानसिक तनाव और फिर नींद की गोलियां – यही बन गई है हमारी आधुनिक जीवनशैली। इसमें ना व्यायाम है, ना आत्म-विश्लेषण, ना संतुलित भोजन और ना ही सुकून। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 2023 में जिन लोगों की मृत्यु हुई, उनमें से अधिकांश 30-45 वर्ष की आयु के थे – यानी युवा वर्ग। यह एक चेतावनी है कि हम तकनीक और त्वरित जीवन के नाम पर अपने शरीर और दिमाग दोनों को जला रहे हैं।
एक ओर हम हेल्थ ऐप्स डाउनलोड करते हैं, कदम गिनते हैं, कैलोरी गिनते हैं, लेकिन दूसरी ओर हम दिनभर कुर्सी से नहीं उठते, पानी नहीं पीते, तनाव नहीं छोड़ते। यह विरोधाभास ही हमारी सबसे बड़ी बीमारी बन चुका है। हमारा खानपान न तो पारंपरिक रहा और न ही वैज्ञानिक। फास्ट फूड, रेडीमेड डाइट, केमिकल युक्त पेय पदार्थों ने हमारे शरीर की प्रकृति ही बिगाड़ दी है।
इस जीवनशैली के लिए केवल व्यक्ति ही नहीं, हमारा पूरा सामाजिक ढांचा जिम्मेदार है। स्कूलों से खेल-कूद गायब हो चुका है, ऑफिस में घंटों की गुलामी को ‘डेडिकेशन’ कहा जाता है, और मोबाइल स्क्रीन को ‘आराम’ का साधन माना जाता है। हमारे शहरी डिजाइन ऐसे हैं जहां चलने की जगह नहीं, पार्कों को शादी पंडाल बना दिया गया है और योग को भी इंस्टाग्राम पोस्ट में बदल दिया गया है।
सरकारें भी उतनी ही जिम्मेदार हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र अभी भी प्राथमिक स्तर पर है, और निवारक स्वास्थ्य सेवाओं पर कोई ध्यान नहीं। शहरीकरण की आंधी में हमने मनुष्यता के साथ-साथ स्वास्थ्य भी खो दिया है।
इस रिपोर्ट को केवल खबर के रूप में नहीं, चेतावनी के रूप में देखा जाना चाहिए। अब जरूरी हो गया है कि स्वस्थ जीवनशैली को जीवन का हिस्सा बनाया जाए। योग, ध्यान, नियमित व्यायाम और संतुलित आहार को दैनिक जीवन में शामिल करना होगा। वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दिया जाए। अफवाहों के स्थान पर रिसर्च और तथ्यों को महत्व दिया जाए। स्कूलों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और स्वास्थ्य शिक्षा अनिवार्य की जानी चाहिए।
डिजिटल डिटॉक्स जरूरी है। दिनभर की स्क्रीन टाइम से बाहर निकलकर प्रकृति से जुड़ने की आदत बनानी होगी। सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत करना होगा। सरकारों को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर जिला अस्पतालों तक, निवारक चिकित्सा पर निवेश बढ़ाना होगा। समय का प्रबंधन करें, नींद का सम्मान करें। देर रात जागना अब “प्रोडक्टिविटी” नहीं बल्कि “सेल्फ डेस्ट्रक्शन” की श्रेणी में आ चुका है।
भारत जैसे देश में जहां आबादी युवाओं की है, वहां इस प्रकार की अचानक मौतें एक गंभीर चिंता का विषय हैं। लेकिन इनका इलाज वैक्सीन विरोध नहीं, बल्कि जीवनशैली का परिमार्जन है। हमें यह समझना होगा कि हम केवल महामारी से नहीं, बल्कि अपनी आदतों से भी मर रहे हैं। विज्ञान ने अपना काम किया – शोध, परीक्षण, निष्कर्ष दिए। अब हमें अपना काम करना है – जीवन को दोबारा जीवन बनाना है, न कि सिर्फ भागदौड़ का नाम।
इसलिए अगली बार जब आप किसी की अचानक मौत के बारे में सुनें, तो टीका नहीं, पहले यह पूछिए – उसकी जीवनशैली कैसी थी?
लेखिका: प्रियंका सौरभ – स्वतंत्र पत्रकार, कवयित्री एवं सामाजिक विश्लेषक
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