विवाह : भ्रम से स्वतंत्र होने का समय आ गया है : प्रियंका दुबे
भारतीय समाज में विवाह को अब भी जीवन की अनिवार्य संस्था की तरह देखा जाता है — ऐसा पड़ाव जिसे हर किसी को तय करना ही चाहिए। पर यह सोच अब तेजी से बदल रही है। विवाह अब विकल्प है, ज़रूरत नहीं। और यह समझना आज के दौर की सबसे बड़ी समझदारी भी है।
वर्तमान समय में जहां दुनिया भर में लोग विवाह को टाल रहे हैं, वहीं कुछ लोग इसे पूरी तरह नकार भी रहे हैं। कई स्त्री-पुरुष आज 30-40 की उम्र तक अकेले हैं — और खुश हैं। कुछ दंपत्ति शादी के बाद चाइल्ड-फ्री मैरिज को चुनते हैं, तो कुछ आपसी सहमति से सेपरेशन को। यह बदलाव सिर्फ बड़े शहरों तक सीमित नहीं है, छोटे शहरों और कस्बों में भी यह सोच पाँव जमा रही है। विवाह का पारंपरिक ढांचा अब सवालों के घेरे में है।
विवाह: जिम्मेदारी या जंजीर?
विवाह को लेकर समाज में अब भी कई भ्रांतियां हैं — जैसे कि समय पर शादी न हो तो जीवन अधूरा है, या शादी ही स्थायित्व का प्रमाण है। पर जब हर साल हज़ारों विवाह टूट रहे हों, घरेलू हिंसा के आंकड़े बढ़ रहे हों, तब क्या यह संस्था वाकई सुरक्षा और स्थिरता का पर्याय है?
असल बात यह है कि विवाह में अब भी प्रेम के अलावा कई गैरज़रूरी आधार घुसे हुए हैं — जैसे दबाव, उम्र की सीमा, समाज का डर, या अकेले रहने का भय। लेकिन प्रेम के बिना किया गया कोई भी साथ टिकता नहीं। और अगर टिक भी जाए, तो भीतर ही भीतर सड़ता है।
प्रेम: दुर्लभ, मगर वास्तविक
सच्चा प्रेम आज भी है — लेकिन वह दुर्लभ है। और दुर्लभ इसलिए है क्योंकि वह सौदों से नहीं, भाग्य और पारस्परिकता से आता है। आप चाहें जितने अच्छे, सफल, ईमानदार या खूबसूरत हों — प्रेम तब ही मिलेगा जब उसे मिलना होगा। प्रेम कभी पात्रता का मोह नहीं करता, लेकिन फिर भी, अगर आप भीतर से तैयार हैं, सच्चे हैं, तो वह आपके पास आकर ठहर भी सकता है।
कई बार लोग कहेंगे कि प्रेम सब कुछ नहीं होता। और यह भी सच है। अगर प्रेम न मिले, तब भी जीवन में बहुत कुछ होता है — कला, मित्रता, परिवार, आपका काम, आपकी रुचियाँ, और जीने का गहरा अहसास। यह जीवन खुद में एक वरदान है।
शादी नहीं, हिंसा सबसे बड़ा पाप है
विवाह को लेकर सबसे ज़रूरी बात यह है — जबरन, डर या झूठी उम्मीदों पर बना रिश्ता ज़हर होता है। हिंसा से बड़ा कोई पाप नहीं होता। जिस रिश्ते में हिंसा, नियंत्रण, अपमान, और डर है — वह टूट जाना ही बेहतर है। और यदि कोई व्यक्ति अकेला रहकर अपने आत्मसम्मान और मानसिक शांति को बचा सकता है, तो यह किसी भी साथ से लाख गुना बेहतर है।
साथ वही सही है जिसमें कोई किसी की चमक न छीने, जहां कोई किसी को कमतर न करे, और जहां प्रेम इतना सच्चा हो कि कभी एक-दूसरे पर ऊँगली उठाने की नौबत न आए। अगर ऐसा नहीं है, तो अकेले रहना ज्यादा ईमानदार विकल्प है।
समाज का चेहरा बदल रहा है
आज बड़ी संख्या में युवा, विशेषकर महिलाएं, अकेले रहना चुन रही हैं। वे अपनी शर्तों पर जीवन जी रही हैं — सम्मान से, सृजनशीलता से, और आत्मविश्वास के साथ। उनके पास किसी से कम कुछ नहीं है, और उनमें कहीं कोई “कमी” का भाव नहीं है। यह बदलाव केवल व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक है।
अंत में…
विवाह उनके लिए है जो इसे प्रेम से चुनते हैं — जबरन या डर से नहीं। ऐसे विवाह वाकई एक नेमत हैं। लेकिन हर किसी के लिए यह नेमत नहीं होती। इसलिए यदि कोई विवाह न करे, तो वह कमतर नहीं है। वह ईमानदार है।
समाज को चाहिए कि विवाह को लेकर अपनी सोच को उदार बनाए। जब तक यह संस्था प्रेम और सम्मान के मूल्यों पर नहीं टिकेगी, तब तक इसका कोई अर्थ नहीं बचेगा। और शायद आने वाले वर्षों में यह संस्था या तो खुद को बदल लेगी — या विलीन हो जाएगी।
क्योंकि अंत में, हर किसी को बस इतना हक़ तो होना ही चाहिए — कि वह खुद के साथ शांति से जी सके।
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